Book Title: Shikshan Prakriya Me Sarvangpurna Parivartan Ki Avashyakta
Author(s): Shreeram Sharma, Pranav Pandya
Publisher: Yug Nirman Yojna Vistar Trust
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४० शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता हैं। ऐसा साहित्य भी बहुत कुछ खोजने पर छुट-पुट रूप में जहाँ-तहाँ ही मिलता है। अरस्तु, सुकरात, कांट, कन्फ्यूशियस जैसे दार्शनिक भी अब नहीं दिखते, जो मात्र जीवन का व्यवहार पक्ष समझाने के लिए पाठशालाएँ चलाएँ। उसकी उच्चस्तरीय उपयोगिता समझें, चिंतन की गहराई में उतरें, अपने ज्ञान और अनुभव की पूँजी बढाएँ और उसे अपने शिष्यों को उपेक्षापूर्वक नहीं वरन् इतनी तन्मयता, आत्मीयता के साथ पढ़ाएँ कि पढ़ने और सुनने वाले के अंतराल में वह जड़ जमाकर बैठ जाए। सुनने वाला उसी ढाँचे में ढल जाए।
विषय के महत्त्व और उसे समझने-समझाने के लिए उपयुक्त प्रतिपादन उपलब्ध न होने पर आज के शिक्षक की जिम्मेदारियाँ और भी अधिक बढ़ जाती हैं। निर्धारित पाठ्यक्रम पढ़ा देना सरल है, क्योंकि उसके लिए पाठ्य-पुस्तकें उपलब्ध हैं। अड़चन पड़ने पर कुंजियों से सहायता ली जा सकती है। फिर पढ़ाने की शैली उन टीचर ट्रेनिंगों में भी उपलब्ध है, जिनमें उत्तीर्ण होने के उपरांत ही शिक्षकों की नियुक्त होती है, पर ऐसी कोई समग्र सुविधा जीवन कला के संबंध में कहीं देखने को नहीं मिलती। उसका तारतम्य तो अपने बलबूते बिठाना पड़ता है। दूसरे तो इस संबंध में हल्का-फुल्का परामर्श ही दे सकते हैं, रीति-नीति, दिशाधारा मात्र बता सकते हैं, पर उसमें पात्रता के अनुरूप किस छात्र को क्या बताया जाए ? यह निष्कर्ष निकालना विचारशील अध्यापक का ही काम है।
नैतिक शिक्षा की इन दिनों बहुत चर्चा है, पर वह भी दिशा संकेत मात्र है। उसमें कम से कम स्काउटिंग, फर्स्ट एड, पर्वतारोहण जैसे सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष तो मिश्रित होने ही चाहिए। परंपरागत प्रवचन शैली अपनाने पर तो लाभ यत्किचित ही हो पाता है। कुतुबनुमा की तरह दिशा संकेतों में व्यावहारिकता की कमी रह ही जाती है।
यहाँ कठिनाई एक और है कि विभिन्न व्यक्तियों का स्तर अलग-अलग प्रकार का होता है और उनकी दृष्टि भी अपने-अपने ढंग की होती है। जिन दुर्गुणों से छुड़ाया जाना है वे भी एक जैसे नहीं होते। जिन सत्प्रवृत्तियों की जिसमें जो कमी है, उन्हें उसी की