Book Title: Shikshan Prakriya Me Sarvangpurna Parivartan Ki Avashyakta
Author(s): Shreeram Sharma, Pranav Pandya
Publisher: Yug Nirman Yojna Vistar Trust
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| १८ | शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता उन्हें उस उच्चस्तरीय मान सम्मान से वंचित रह जाना पड़ता है, जिसके कि वे आरंभ से ही अधिकारी रहे हैं। आज भी वह सम्मान अध्यापक वर्ग को प्राप्त हो, ऐसी आशा अपेक्षा की जाती है।
प्राचीनकाल में गुरुकुल प्रणाली थी। घरों से बहुत दूर वन-आरण्यकों में वे स्थापित होते थे। घर आने-जाने की न स्वीकृति मिलती थी और न सुविधा होती थी। उन संस्थाओं में रहन-सहन, आहार-विहार का ऐसा क्रम निर्धारित रहता था कि जिसमें गरीब-अमीर का अंतर न दिख पड़े। वे संस्थाएँ भिक्षाटन, दान-दक्षिणा से चलती थी। डाक मनीआर्डर प्रणाली न होने से अभिभावक नियमित खर्च भेज नहीं पाते थे। ऐसी दशा में सभी को गुरुकुलों में मितव्ययिता का मार्ग अपनाना ही पड़ता था। छात्र, सुसंपन्न परिवारों जैसी सुविधाएँ प्राप्त नहीं कर पाते थे। यही नहीं, गुरुकुल व्यवस्था संबंधी अनेक कार्य श्रम से मिल-जुलकर छात्रों को ही करने पड़ते थे। उदाहरणार्थ-आश्रम की स्वच्छता, गौओं को चराना, उनकी संभाल करना, सब्जी उगाना, बागवानी, जंगल से ईंधन इकट्ठा करके लाना, भिक्षा माँगकर लाना, झोपड़ियों की मरम्मत आदि अनेक श्रम साध्य काम करने होते थे।
गुरुकुल इस प्रकार असुविधाओं से भरे होते हुए भी, दूर-दूर क्षेत्रों के विचारशील व्यक्ति अपने बालकों को बड़ी उत्कंठा से उनमें भर्ती कराते थे। अपने बालकों को आँखों के आगे सुविधाओं के बीच रखने की स्वाभाविक इच्छाओं पर नियंत्रण रखते हुए, छाती पर पत्थर रखकर, फूल से बच्चों को कष्टसाध्य जीवन में प्रसन्नतापूर्वक भेजते थे।
ऐसा क्यों होता था ? क्या वे अभिभावक नितांत दरिद्र या निष्ठुर थे ? वास्तव में इनमें से एक भी बात नहीं थी। प्रत्यक्ष कारण यह था कि गुरुकुलों से निकलने वाले छात्र, जहाँ कई विद्याओं के ज्ञाता होते थे, वहाँ उनकी प्रतिभा में शालीनता, पुरुषार्थ परायणता के चार चांद लगे होते थे। इन उपलब्धियों को देखकर न केवल अभिभावक कृत-कृत्य होते थे, वरन् पड़ौसी भी छात्रों को हर दृष्टि से सुसंस्कृत, समुन्नत देखकर भाव-विभोर हो उठते थे। उन प्रत्यक्ष