Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 13
________________ माकू कथन हमें यह प्रकट करते हुए अत्यन्त हर्ष होता है कि गत द्वितीय भागके प्राक् कथनमें हमने मूडबिद्री सिद्धान्तभवनके अधिकारियोंके सहयोगसंबंधी जो सूचना प्रकट की थी, वह क्रियात्मक रूपमें परिणत हुई। इसके प्रमाण पाठक इसी भागके साथ प्रकाशित साहित्यसामग्रीमें देखेंगे। हमने महाधवलके अन्तर्गत ग्रंथ-रचनाके संबंधमें एक स्वतंत्र लेखकेद्वारा जो चिन्ता और जिज्ञासा प्रकट की थी, उसने उक्त सिद्धान्त भवनकी क्रियात्मक शक्तिको जागृत कर दिया । शीघ्र ही हमें स्वयं भट्टारक स्वामी चारुकीर्तिजी द्वारा महाधवलके संबंधी अनेक सूचनाएं और उसका परिचय भी प्राप्त हुआ और उसी सिलसिलेमें सिद्धान्तग्रंथोंके ताड़पत्रों, मंदिरों व अधिकारियों व कार्यकर्ताओंके चित्र भी उन्होंने भिजवानेकी कृपा की, व ताडपत्रीय प्रतियोंसे पाट-मिलानकी सुविधा भी करा दी। इस पुण्य कार्यमें हमारे सदा सहायक पं. लोकनाथजी शास्त्री ने उक्त महाधवल-परिचय और मूडबिद्रीका कुछ इतिहास भी लिख भेजनेकी कृपा की. तथा वे अपने दो सहयोगी पं. नागराजजी शास्त्री और पं. देवकुमारजी शास्त्री के साथ मिलान कार्यमें दत्तचित्त भी हो गये । इस समस्त सहयोगके फलस्वरूप इस भागके साथ हम मृडबिद्री, वहांकी सिद्धान्तप्रतियों, मन्दिरों और अधिकारियोंके चित्र व परिचय और इतिहास पाठकोंके सन्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं । यही नहीं, अब तक प्रकाशित तीनों भागोंके पाठका ताडपत्रीय प्रतियोंसे मिलान व तत्संबंधी निष्कर्ष अत्यन्त परिश्रमपूर्वक सुव्यवस्थित करके पाठकोंके विचारार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। एक ध्यान देने योग्य हर्षकी बात यह है कि मूडबिद्रीमें धवलसिद्धान्तकी एक संपूर्ण ताड़पत्रीय प्रतिके अतिरिक्त दो और ताडपत्रीय प्रतियां हैं । यद्यपि ये बहुत अधिक त्रुटित हैं- इनके बीचके सैकडों पत्र अप्राप्य हो गये हैं- तथापि जितने हैं उतने पाठसंशोधनकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि, इनमें परस्पर पाठभेद भी पाये जाते हैं जहांसे हमारे मिलानमें दिये हुए 'ब' खंडके पाठभेदोंकी उत्पत्ति संभव है । विशेषतः मिलानके 'ब' खंडमें दिये हुए भाग एकके पृष्ठ २२८ से अन्ततकके पाठभेद तो यहीं से उत्पन्न हुए विदित होते हैं । यथाशक्ति इन त्रुटित प्रतियोंके मिलान लेनेका भी हमने प्रयत्न किया है, किन्तु वर्तमान परिस्थितिमें इनका उतना और उसप्रकार उपयोग नहीं हो पाया जितना सूक्ष्मताकी दृष्टिसे अभीष्ट है। यथावसर इन प्रतियोंका विशेष परिचय देने और उपयोग लेनेका भी प्रयत्न किया जायगा । इस महान् साहित्यिक निधिको सर्वोपादेय बनाने में सहायताके लिये मूडबिद्रीके उक्त महानुभावोंका हम जितना उपकार माने, थोड़ा है। १ यह लेख जैन गजट, जैन मित्र, जैन संदेश, जैन बोधक आदि पत्रों में नवम्बर १९४० में प्रकट हुआ था। उसका पूर्णरूप अन्तिम सूचनाओं तकके समाचार लेकर दिसम्बर १९४० के जैन सिद्धान्त भास्करमें प्रकाशित हो चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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