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(१८२) न्यून एवा एक सागरोपम कोटाकोटिनी स्थितिवाळा करे छे. अहींया जीव कर्मथी उत्पन्न थएल अत्यंत निविड रागद्वेषना परिणामरुप कर्कश अने दुर्भेद्य एवी ग्रंथि सुधी आवे छे. आ ग्रंथीदेशसुधी तो अभव्यजीवो चारित्र लइने पण संख्याती वा असंख्यातीवार आवे छे. आ यथा प्रवृत्तिकरणनो काळ अंतर्मुहूर्तनो जाणवो. अनाद्यनन्तसंसाराऽऽ वर्तवर्तिषुदेहिषु । ज्ञानदृष्टयावृत्तिवेद-नीयान्तरायकर्मणाम् ॥१॥ सागरोपमकोटीनां,कोटय स्त्रिंशत्परास्थितिः। विंशतिर्गोत्रनाम्नोश्च मोहनीयस्य
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