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12. अधिष्ठाताः कुछ आचार्य लोग अपकायिक जीवों का अधिष्ठाता देव ब्रह्म मानते हैं। इसीलिए जल को बम्भथावरकाय भी कहते हैं। 13. पहचानः जीवों की पहचान उनकी इंद्रियों से होती है। जलकायिक जीव को 5 इन्द्रियों में से केवल एक स्पर्श-इंद्रिय ही प्राप्त है। आधुनिक विज्ञान को तो अभी समझना है कि यह जीव किस प्रकार का हो सकता है, जो पानी से बनी काया या योनि में रह सकता है। 14. शरीर और प्रकारः काया तो जीव द्वारा कुछ आवश्यक क्रियाओं को सम्पन्न करने का साधन है। या उसके आयुष्य काल में अपने कर्मों के शुभ या अशुभ फल को भोगने का साधन है। जीव के नाम-कर्म के उदय के कारण उसका शरीर या काया बनती है। जलकायिक जीवों के 3 प्रकार के शरीर रहते हैं:
i) औदारिक शरीर : यह शरीर उदार यानि मुख्य रूप से सूक्ष्म पुद्गलों से बना होता है। रक्त, माँस, हड्डी आदि इन्ही पुद्गलों से बनते हैं। मनुष्य या तिर्यंच जीवों का भौतिक शरीर इन्हीं औदारिक पुद्गलों से बना होता है। पानी का भौतिक शरीर भी औदारिक है। इसका मुख्य गुण सड़ना, गलना
और विध्वंस/मिटना है। ii) तेजस् शरीरः यह ग्रहण किये आहार को चयापचय करने वाला शरीर है। यह तेजस् पुद्गलों से बना होता है। इसका अस्तित्व, जीव में उपस्थित ऊष्णता से पहचाना जा सकता है। तप और साधना से तेजो-लब्धि जैसी विशेष शक्तियाँ प्राप्त की जा सकती है। iii) कार्मण शरीर : जैन-विज्ञान के अनुसार यह शरीर 8 प्रकार के कर्म पुद्गलों का भण्डार गृह है। यह सबसे सूक्ष्म शरीर है और किसी भी जीव के विभिन्न भवों के कार्य कलापों का, क्रियाओं का लेखा-जोखा के रूप में रहता है। ये अंतिम दोनों शरीर, हर संसारी आत्मा के साथ जुड़े रहते हैं। जलकायिक जीवों की आत्मा के साथ भी। जब एक आत्मा, जल-काय रूपी औदारिक शरीर, जो कि पानी के अणुओं से बना होता है, में प्रवेश करती है, तो वह जलकायिक जीव कहलाता है।
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