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7. प्रत्येक जीवः जैन दर्शन के अनुसार एक बूंद पानी में असंख्य जलकायिक जीव हो सकते हैं। लेकिन एक शरीर में यानि पानी के एक कोषाणु (जालीनुमा ट्यूब योनि) में एक ही आत्मा हो सकती है। इसके विरूद्ध, निगोद (एक प्रकार का वनस्पतिकाय) की एक काया/शरीर में अनेक जीव हो सकते हैं। 8. अवगाहनाः एक जलकायिक जीव की काया की लम्बाई, अंगुली की सूक्ष्मतम लम्बाई के बराबर होती है। दूसरे शब्दों में इस जीव की काया इतनी छोटी है कि एक बूंद पानी में असंख्य जीवित काया समा सकती है। पानी को जलकायिक जीवों का पिंड माना गया है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी लाखों वाष्प रूप पानी के अणुओं से एक बूंद पानी बनता है। 9. सघनता: असंख्य जलकायिक स्थावर जीव एक बूंद पानी में रह सकते हैं। असंख्य अपर्याप्त जीव पानी के एक पर्याप्त जीव के सहारे टिक सकते हैं। विज्ञान में अभी तक ऐसी कोई अवधारणा नहीं मानी गई है। 10. आकृति (संठान) यह बुलबुले के समान ढीला है। कुछ विशेष प्रकार की अणु-संरचना विज्ञान के समझ में आती है, लेकिन उनकी सूक्ष्म स्तर पर शोध की कमी है। 11. संख्याः लोक में विभिन्न प्रकार के स्थावर जीवों की सापेक्ष संख्या निम्न प्रकार से जैन-विज्ञान में बताई गई है।
i) त्रसकाय के जीवों की संख्या सबसे कम है।। ii) तेजस्काय के जीव उनसे असंख्यगुण ज्यादा हैं। iii) पृथ्वीकाय के जीव तेजस्काय की संख्या के दुगुणे से कुछ कम है। iv) अप्कायिक जीव पृथ्वीकाय के जीवों की संख्या के दुगुणे से कुछ
कम है। v) वायुकायिक जीव की संख्या अप्काय के जीवों से दुगुणे से कुछ
कम है। vi) वनस्पतिकाय (निगोदिया सहित) जीव वायुकायिक जीवों से
अनंतगुणा ज्यादा है।
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