Book Title: Satyamrut Achar Kand
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 7
________________ सत्यामृत पनिगम का दाम ही चित्रित किया गया है । विष्णु सत्य और भगवती अहिंसा के रूप में साकार गरपाई तो उसकी पत्नी लक्ष्मी उसकी और ज्ञेयरूप में माना जाता है और इससे हमें दमी है जो उसकी पगचंपी कर रही है । और न्याय और प्रेम दोनों की छत्रछाया मिलती है। अश्विर की दोनयाँ टमी और सरस्वती-मानी अहिंसा की निधपरता से बना है तब बद कल्पना दाम्पत्य के भी र आज : ईश्वर को पुरुष-रूप में प्रश्न-अहिंसा शब्द निषेध-परक है । उससे म मनन का आनन्द पा सकता हिंमा न करने की बात मालूम होती है परन्तु है, पाप में बना रह सकता है, निर्दोष जीवन कुछ करने की बात नहीं मालूम होती । इसलिये व्यतीन कर सकता है पर पुरुषरूप ईश्वर को अहिंमा को भगवती कहना कहाँ तक ठीक होगा? कल्पना का समाज पा अधा प्रभाव नहीं पड़ता उत्तर-शब्द का रूप विधिपरक हो या समाज में लैगिक अन्याय को पीठबल मिलने निषेध-परक, अगर उसका अर्थ व्यापक हो तो कोई हानि नहीं है । अहिंसाका अर्थ खूब व्यापक बहुत से लोगोंने ईश्वर को नारीरूप में है. उसमे समस्त दुराचार की निवृत्ति और समस्त चित्रित किया है उनका विचार यह रहा है कि सदाचार में प्रवृत्ति आ जाती है। निषेध-वाचक पिता की अपेक्षा मातः महान् है क्योंकि सृष्टि- अव्यय का प्रयोग दो तरहका होता है पर्युदास और रचना में माता की शक्ति अधिक लगती है, ईश्वर प्रसज्य । पर्यदास में एक चीज का निषेध करके सर्जक है और दयालु है सर्जकता और दया- दसरे की विधि की जाती है। जैसे असत्य का टुता पिता की अपेक्षा माता में अधिक होती है अर्थ है झूठ, न कि केवल सत्य का अभाव | इमटिये ईश्वर पिता नहीं है माता है। इसीलिये , प्रसज्य पक्ष में सिर्फ निषेध समझा जाता है, इस शाक्त सम्प्रदाय में ईश्वर जगदम्बा शक्ति आदि शब्दों से कहा जाता है और उसकी मूत्ति नारी- जाता है जैसे मेरे पास धन नहीं है । यहाँ धन का प्रयोग वाक्य में क्रियापद के साथ किया । मपिणी बनाई जाती है । पुरुष-रूप ईश्वर की का निषेध है किसी चीज की विधि नहीं है । अपेक्षा नारीहप ईश्वर की कल्पना अधिक माहक अहिंसा शब्द में जो निषेध वाचक 'अ' है वह और कुछ न्यायोचित है र है यह भी अधूरी। कवल पुरुष से या केवल नारी में सर्जन नहीं __ पर्युदाम है इससे सिर्फ हिंसा का अभाव ही नहीं होता दोन का होना और दोनों का सहयोग मालूम होता किन्तु दुराचारों के निषेध के साथ जरूरी है। फिर एक बात यह भी है कि प्रेम, दया, भक्ति और न्यायपरायणता आदि समस्त मि दयाल या क्षमाशील नहीं है वह न्यायाधीश सद्गृनया की विधि भी मालूम होती है। के समान नि:पक्ष और कटार भी है इसलिये वह प्रश्न-ईश्वर के विचार अंश के लिये जैसे मामा के साथ पिता भी है। श्वर के पिना-करक विधिपरक शब्द 'सत्य' है उसी प्रकार की सत्य और मामा-अप के हमा कहत है। आचार अंश के लिये विधिपरक प्रेम आदि शब्द प्रकार निगकार और अजेय श्वर भगवान कन:

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