Book Title: Samyaktva Shalyoddhara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Punyapalsuri
Publisher: Parshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad

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Page 11
________________ संपादकीय कहा जाता है : महापुरुष जितने प्रसिद्ध होते हैं, उतने ही अप्रसिद्ध होते हैं । न्यायांभोनिधि - पांचालदेशोद्धारक - श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वरजी महाराजा एक ऐसा ही व्यक्तित्व था । उन्हीं के द्वारा विरचित जैन तत्त्वादर्श आदि ग्रंथ का संपादन करने की जिम्मेदारी मुझ पर आने से उन्हीं के बारे में बहुत कुछ जानने व अनुभव करने को मिला । फिर भी उन्हें समझने का दावा तो कर ही नहीं सकता । उन्हें पहिचानने का और जानने का दावा तब ही और वे ही कर सके कि उन्हीं के द्वारा रचा गया साहित्य जीवन में कुछ समझने की इच्छा से पढ़ा हो, उस पर श्रद्धा पैदा की हो। सिर्फ उनके गुणगान से या उनके भक्त कहलाने से उनकी सही पहचान नहीं हो सकती लेकिन उन्हें सही रूप में पहिचानने के लिए उनका विशाल साहित्य ही हमारे लिए प्रमाण बन सके यह निःशंक बात हैं। लेकिन दुःख के साथ बताना पड़ता है कि उनके भक्त और शिष्य गिने जानेवाले वर्ग में से भी बहुत बड़ा वर्ग ऐसा होगा कि- जिन्होंने पूज्यश्री के साहित्य का अध्ययन तो दूर रहा, उस साहित्य को देखा भी नहीं होगा !!! अपने सबके तारणहार-सुविशालगच्छाधिपति-संघ परमहितचिंतक-परमकृपावतारकरुणासागर-महामनीषीप्रवर-संघस्थविर पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के हृदय में यह बात खटकती थी। वे अपने संभाषणमें कभी-कभी इसके संदर्भ में अंगुलीनिर्देश करते थे । उन्होंने एक बार मुझे कहा कि 'पुण्यपाल ! आत्मारामजी म. के ग्रंथ बहुत ही उपयोगी हैं । इनका अध्ययन-चिंतन-मनन बहुतों को उपकारक सिद्ध हुआ है इसलिए उनका रचा हुआ सभी साहित्य पुनः प्रकाशित करने जैसा है, जिससे उसके द्वारा लोग सन्मार्ग को समझे और प्राप्त करे' महापुरुषों का अंगुलीनिर्देश ही पर्याप्त होता है । पूज्यश्री की इस बात को उसी समय ही मैंने 'तहत्ति की । इसके लिए पूज्यश्री ने अंतःकरण से आशीर्वाद भी दिये । इन सबके परिणामस्वरूप तीन बरस पहले 'जैन तत्त्वादर्श' संपादित करके प्रकाशित किया, इस के बाद में आज सम्यक्त्व शल्योद्धार का प्रकाशन हो रहा है यह एक आनंद की बात है। __ वर्षों पूर्व प्रकाशित पूज्यश्री का विशाल और समृद्ध साहित्य आज अनुपलब्ध हैं। कुछ पुराने भंडारों में उनका साहित्य देखने को मिलता है । लोक भोग्य से लेकर विद्वद्भोग्य बन सके ऐसा विपुल साहित्य पूज्यश्री ने अल्प समय में हमें दिया है, यह हमारा परम सौभाग्य है । ५९ साल की छोटी-सी जिन्दगी में पूज्यश्री का संयमपर्याय श्वेतांबर मूर्तिपूजक के नाते सिर्फ २० साल का था जब कि ग्रंथ सर्जन का पर्याय २६ वर्ष का ही था । इस समयावधि में नवतत्त्व से प्रारंभित पूज्यश्री की श्रुत गंगा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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