Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 16
________________ संवेगरंगशाला प्रस्तावना . के आ निर्दय एवा कर्मराजाने पनारे जो तमारे न पडq होय तो संवेगगुणना स्वरूपने आ ग्रन्थमाथी गुरुमुखे सांभळो, सांभल्या पछी समजो, समज्या पछी श्रद्धा करो अने पछी जीवनमा उतारवा सतत प्रयत्नशील बनो. आ रीतनो प्रत्यन सतत चालु हशे तो कर्मराजा तमारा पगमां नमतो आवशे. अहिं तमे मुक्तिना सुखनो नमुनो चाखशो अने ज्यां सुधी मुक्तिमां नहिं जाओ त्यां सुधी संसारना सुखो तमारी पगचंपी करशे, अने त्यारे तमारे तो एनी साथे अणबनाव रहेशे तेमज बहु नजीकमां तमे सकल कर्मनो क्षय करी मुक्तिपदना भोक्ता बनशो. आ ग्रन्थनी खूबी ए छे के द्वारो अने पेटाद्वारोना वर्णनमां सिद्धान्तसिद्ध दृष्टांतो आपीने ते द्वारो अने पेटाद्वारोनी समजण खूब ज सुंदरी रीते आपी छे. आ ग्रन्थनी वात कोई प्राचीन ग्रन्थमाथी ग्रन्थकारे लीधेली होय तेम जणाय छे. केम के रचयिता पू.जिनचंद्रसूरिजी महाराज छे. अने जे वात करवामां आवी छे ते भगवान महावीरना स्वहस्तदीक्षित शिष्य महसेन राजर्षिनी छे. भगवान महावीर निर्वाण पाम्या पछी भगवान गौतमस्वामीजीने केवळज्ञान थाय छे. तेमने आ लघु-बंधु पोतानी वृद्धावस्थामां कंपते शरीरे पूछे छे के ज्यारे शरीर विशिष्ट तपनी आराधनामां उपयोगी न रहे त्यारे अंतिम आराधना केवी रीते करवी? एना खुलासा सविस्तर रीते भगवान गौतमस्वामीजी महाराज कहे छे ए ज आ ग्रन्थनो विषय छे. ट्रॅकमां संवेगरंगशाळा एटले मोहनी सामे विंझाती शमशेर. एनी एक एक गाथामां मोहनी वेदना अने चीत्कारना डुसकां संभळाय छे. एमां संभळाय छे शिवसुंदरीना पायलनो झंकार. एनी गौरवगाथा एटले क्रूर अने विकराल एवा कालने क्रूर थप्पडो. एमां आपेली कथाओमां शेताननी शेतानियत जेम संभळाय छे तेम वीरनी वीरता पण वर्णवाय छे अने कायरोनी कायरतानी कमनसीब कहाणी पण छे. संवेगरंगशाळाना श्लोको एटले मोहनी छाती उपर उपराउपरि गोठवायेली तोपो कहो के तीर कामठां कहो, आजनी भाषामां बोंब कहो के जुना जमानानी बंदूको कहो. जे कहेवू होय ते कहो पण ए वात चोक्कस छे के आ ग्रन्थ वांचनार भव्य जीव थोडा कालमा निजना मोहनो नाश अने स्व-स्वरूपनी अनुभूति करे छे. मोहमां पागल बनेला कायरोनी कमनसीब कथा सांभळी कर्मनी क्रूरता भरी कतल करनारा पण कंपी उठे छे. बीजी बाजु वीरपुरुषोए मोहनी सामे बतावेल शौर्यनां सन्मान पण स्थळे-स्थळे देखाय छे. टुंकमां संवेगरंगशाळा आपणनें कहे छे, "ओ मोहनिद्रमा मस्त बनेला मानवी! तुं तारी आत्मानी आंखने उघाड, उठ, बेठो था. मात्र बेठा थये नहि चाले पण ऊभो था अने आ ग्रन्थमां | बतावेला बळवान शस्त्रो स्वीकारी मोहनी सामे लडाई लडवा मांड. ओ अज्ञानना अंधकारमा अथडाता मानवी! जरा विचार कर, विचार कर. क्यां तारी आराधनानी उत्तम सामग्री अने क्यां तारी मोहमस्तता? आ मोहस्तीने मारीने मूळ स्वरूपने प्रगट करवं होय तो आ ग्रन्थ- पुनः पुन रटण कर." आ ग्रन्थ एटले रत्नत्रयीनी पांगरेली वसंतऋतु, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्रनी पानखरऋतु. आ कथा कोई कल्पनाना गुंथेला तार नथी पण आत्माने हितकार तथ्यो, पथ्य छे. संसार शेतरंजनी पाशवलीला आ ग्रन्थ आबेहूब दर्शावे छे. बारमी सदीनी प्रथम पच्चीसीमां लखायेल आ ग्रन्थ ए मात्र कोई पुस्तक के पानाओना ढग नथी. सिद्धांत के नियमोनी यादी नथी. मात्र अहेवालोनो हिमालय नथी पण संसार सागर पार करवा कर्ममत्स्योनी कतल करनार होडी छे. मात्र होडी ज नहि पण मुक्ति महालयमां सादि अनंतकाल पर्यंत महालवा माटे, महान् यानपात्र छे. एनो एक एक श्लोक मोहनी सामे मशीनगन छे. एनुं एक-एक पद कर्म सामे रीवोल्वर छे. एनो एक एक अक्षर ए मिथ्यात्वमातंगने महात करवा मृगादिराज छे. एनो एक एक अधिकार अविरतिने उखेडवा एने कषायवृक्षोने कापवा कुहाडो छे. - वधुं शुं कहीए! आ ग्रन्थ एटले साक्षात् मिथ्यात्वनुं मोत, अविरतिनी विरति (विराम) अने कषायोनी कुटिलानी क्रूर कहाणीना कथन साथे तेनी करपीण कतल तेमज मन, वचन अने कायाना योगनो अयोग छे. - आचार्य देव श्री रामचंद्र सूरीश्वरजी के शिष्यरत्न मुनिराज श्री मुक्तिविजयजी.

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