Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 12
________________ क मजनचिनबालभ MROM मानी कुलीनो जगतोऽभिगम्यः, कृतार्थजन्मा महनीयबुद्धिः ।। (सुभाषितरत्न सन्दोह-२३१) अर्थात् :- जिस पुरुष के अत्यन्त निर्मल पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान चारित्र होता है वही गुणवान है, वही माननीय है, वही कुलीन है, वही जगत | में वन्दनीय है, उसी का जन्म सफल है तथा वहीं महान बुद्धि का धारक है। मुनिराज ऐसे परम प्रशस्त चारित्र की निधि से सम्पन्न होते हैं। ऐसे तपोधन का जीवन पूर्ण सदात्तारमय होता है । वे उपसर्गकर्ता पर सदैव अमाभाव धारण करते हैं । इन्द्रियों को जीतकर वे स्वात्मध्यान का प्रयत्न करते हैं। सत्य का आभूषण पहनने के कारण वे अत्यन्त सुन्दर लगते हैं। जिसप्रकार अमृत का सेवन करने से क्लेश मिट ता है व पौष्टि क्तता का आविर्भाव होता है। वैसे ही चारित्र का परिपालन करने से आत्मा के सम्पूर्ण क्लेश विलीन हो जाते हैं और आत्मा पुष्ट होती है। जैसे विष का सेवन करने से महान कष्ट भोगना पड़ता है तथा प्राणों का वियोग भी होता है उसीप्रकार विषय-भोगों से जीव अनेक कर्मों का बन्ध कर लेता है तथा दारूण कुखों को भोगते हुए हुए नरक-जिगोदादि की पर्यायों को प्राप्त करता है। जो मुनिवेश को धारण करके भी रागभाव को पुष्ट करते हैं, इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते हैं, विषय-भोगों से आसक्ति करते हैं, वे केवल वेषमात्र से ही मुनि हैं । ऐसे मुनियों के संसार का कामी अन्त नहीं हो सकता। आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव लिस्तते हैं .. धम्मो छोड़ लिगंजलिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। । जाणेहि भावधरगं कि लिंगेण वायव्यो। (लिंगपाहुड-२) अर्थात् :- धर्म ही लिंग होता है। लिंगमात्र को धारण करने से ही किसी को धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए भाव को ही धर्म जानो । भाव से रहित लिंग से तुझे क्या कार्य है ?

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