Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 38
________________ RRRRRC मज चत्तबल्लभ बाधा सह्यते) क्षुधा आदि से उत्पन्न होने वाली बाधाओं को सहन करते | अर्थ : हे भिक्षो ! जब हाथ को छोटा भोजन का पात्र बनाकर दूसरों के गृह में भिक्षार्थ भ्रमण करते हो, तब तुम्हें मानापमान से क्या प्रयोजन है ? अहर्निश तापसवृत्ति के कारण कुं... लोजन से तुम ढुःखित क्यों होते हो ? || मुनिगण अवश्यमेव श्रेयार्थ क्षुधादिक से उत्पन्न बाधाओं को सहन करते भावार्थ: मुनिराज बाह्याभ्यन्तर परिवाह के त्यागी होते हैं। अतः वे अपने | पास भोजन के लिए कोई पात्र आदि भी नहीं रखते हैं। जब वे आहार करते हैं, तब वे अपने दोनों हाथों को मिलाकर उसे एक पात्र का रूप देते हैं और उसी करपात्र में स्निग्ध-रुक्ष, इष्ट - अनिष्ट अथवा स्वादिष्ट - नीरस यथालब्ध आहार को ग्रहण करते हैं। आचार्य भगवन्त समझाते हैं कि - हे मुने ! जब तुम पराये घर में | भोजन ग्रहण कर रहे हो तो मानापमान का विकल्प छोड दो । उनोदर, रसपरित्याग अथवा अशुभ कर्मोदय से भरपेट भोजन न मिलने पर अथवा रुचिकर भोजन की प्राप्ति नहीं होने पर विषाद मत करो । मुनिराज के बाईस परीषहों पर विजय और बारह तयों का परिपालन ये सौतीस उत्तरगुण हैं। मुनिराज मूलगुणों के परिपालन के साथ-साथ उत्तरों की परिपालना में मन को लीज करते हैं। आत्मकल्याण के लिये लुधा और तृषा से उत्पन्न होने वाले महाज कष्टों को भी शान्त रिणामों से सहज करते हैं। मन में मनीजता को प्रवेश नहीं करने देना, infil गहान तप है । संघ में रहने का आदेश एकाकी विहरत्यनस्थितबलीवर्दो यथा स्वेच्छया , योषामध्यरतस्तथा त्वमपि भो त्यक्त्वात्मयूथं यते।

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