Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 49
________________ एमरजनचिनवलभ जल्ल और मल से पूरित हो जाता है। इससे उनका शरीर कुरूप होता है। अस्थिकंकालत्व और कुरूपता ये दो लक्षण प्रेत में पाये जाते हैं। अत यहाँ मुनिराज के शरीर को प्रेत की उपमा दी है। प्रेत से वार्तालाप करने के लिए राक्षसी के समान दुष्ट मना व हिम्मत वाली स्त्री ही चाहिये । अतः यहाँ स्त्री को राक्षसी की उपमा दी गई है। आचार्य भगवन्त समझाते हैं कि हे मुजे । स्त्री रूपी राक्षसी मुझे अर्थात् मेरे रत्नत्रय को, धर्म को या मोक्षपुरुषार्थ को खाने के लिए आयी है ऐसा विचार करके आप उसकी संगति में एक पल भी मत रुको। आत्मनाश या संयमनाश ही साधु का मरण है। मरण के भय से मनुष्य दूर-दूर भागता है, अतः साधना का मरण न हो इसलिए हे मुळे ! आप स्त्री रूपी राक्षसी से दूर भागो । उनकी संगति में एक क्षण भी व्यतीत मत करो। स्त्रियों पर विश्वास करने का निषेध मागास्त्वं युवतीगृहेषु सततं विश्वासतां संशयो, विश्वासे जनवाच्यतां भवति ते नश्येत् पुमर्थं ह्यतः । स्वाध्यायानुरतो गुरुक्तवचनं शीर्षे समारोपय स्तिष्ठत्वं विकृतिं पुनर्व्रजसि चेद्यासित्वमेव क्षयम् ॥२३॥ अन्वयार्थ : - । (त्वम्) तुम ( सततम् ) हमेशा ( युवतीगृहेषु) स्त्रियों के घर में आपके द्वारा ( विश्वासतां मा गाः) विश्वास मत करो। (ते विश्वासे) विश्वास किये जाने पर (जन वाच्यताम् ) लोक चर्चा एवं ( संशयो भवति) संशय होता है। (नश्येत् पुम् अर्थम्) पौरुष नष्ट होता है (अतः ) इसलिए (त्यम्) तुम (गुरुक्तवचनम् ) गुरु के द्वारा कथित वचनों को (शीर्षे समारोपय: तिष्ठ :) सिर पर धारण करो । ( स्वाध्यायानुरतः ) स्वाध्याय में मग्न रहो। (चेत् पुनर्विकृतिं व्रजेत् ) यदि भ्रष्ट हो जाते हो तो ( त्वमेव ) तुम ही (क्षयं यासि ) क्षरा को प्राप्त हो जाओगे । 153 ४३

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