Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 48
________________ Rawww मजचिनवग्लभ www अर्थ : वेताल (प्रेत की) आकृति वाले. अधजले मृतक के समान तुम्हें देखकर को भा नहीं है तुन्हा शारक्षबात करती हैं ऐसी वे स्त्रियाँ || धरती पर राक्षसियों के समान हैं । वे मुझे खाने आयी हैं ऐसा मानकर मरण के भय से तू भाग जा. वहाँ एक पल भी मत रह। भावार्थ : संआषण प्रीति का बीज है । नीतिकारों के मतानुसार भी लेना, देना, खाना, खिलाजा, बोलना और सुनना से छह प्रीति के उत्पादक कारण हैं । स्त्रीविषयक यह प्रीति आगे चलकर धीरे-धरि वासना का रूप ले सकती है । चरणानुयोग पद्धति आत्मनाश के कारणों को प्रारंभ में ही दर करने की शिक्षा देती है । इसी बात को ध्यान में रखकर यहाँ इस श्लोक का अवतरण हुआ है। स्त्री की निन्दा करना, यह उद्देश्य ग्रंथकार का नहीं है क्योंकि साध परनिन्दा जैसे दष्कर्म का आचरण नहीं करते हैं। यहाँ साधु को वैराग्य में प्रवृत्ति कराने के लिए और स्त्रियों से दर हटने के लिए प्रेरित किया गया है। शंका :- स्त्री को राक्षसी कहना तो निन्दायुक्त वचन ही है। समाधान :- श्लोक का प्रत्येक विशेषण विलोकनीय है । मुनिराज रत्नत्रय से पवित्र होते हैं । मोक्षमार्ग के पश्चिक मुनिराज जो कि जगत् में सर्दपूज्य हैं, उनके लिए वेतालाकृति और अर्धदग्धमृतक ये दो विशेषण उनके शरीर की मलिनता को देखकर दिये गये हैं। उनमें भी अनुराग को उत्पन्न करने वाली स्त्री कौन होगी? वेताल की अजरागिनी मानुषी तो हो लहीं सकती क्योंकि वेताल से राक्षसी का ही प्रेम होता है। इसतरह विशेषण -विशेष्य का सम्बन्ध जोडकर विचार करने पर मुनि के तन को कुरूप और स्त्री को इष्टा ऐसा आचार्य देत कह रहे हैं यह अर्थ स्पष्ट । होता है। भावार्थ यह है कि आहारादि का राश्वेष्ट लाभ न होने के कारण तथा कठोर तपश्चर्या के कारण मुजि का शरीर अस्थिकंकाल अर्थात हहियों का पुतल. मात्र रह जाता है । स्नानादित क्रियाओं के न करने से सर्वांग

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