Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 52
________________ सज्जनचिनवलन व्य अर्थ : क्या विष्ठा पर सौ बार संस्कार करने पर विष्ठा कभी चन्दन हो आती है ? क्या यह काया प्रतिदिन जलरजान से पवित्र हो जाती है ? नखदन्त, मुख और वपु का संस्कार तू कर रहा है। तू मण्ड नप्रिय हैं, अकामी नहीं ऐसी सार्थकता मत करो। (मण्ड नप्रिय इस नाम को सार्थक मत करो ।) भावार्थ: शरीर का दासत्व करना आत्मा के लिए अहितकर है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री अमितगति जी लिखते हैं कि ये भावाः परिवर्धिता विद्यते कायोपकारं पुनस्ते संसारपयोधिमज्ञ्जनपुरा जीवापकार सदा ॥ जीवानुग्रहकारिणी विद्यते कायापकारं पुननिश्चिव्येति विमुच्यतेऽनर्घार्धया कापोपकारि त्रिधा । ( तत्व भावना - ४४ ) अर्थात् :- जो धारण किए हुए व बढ़ाए हुए, रागादिभाव व स्त्री, पुत्र, मित्र, राज्य, धनसम्पदा आदि पदार्थ इस शरीर का भला करते हैं परन्तु वे भाव या पदार्थ संसार समुद्र में डुबाने वाले हैं इसलिए वे हमेशा जीव का बुरा करते हैं तथा जो वीतराग भाव या तप, व्रत, संयम आदि जीव के उपकार करने वाले हैं वे शरीर का बुरा करते हैं अर्थात् शरीर को संयमी व संकुचित रहने वाला बनाते हैं ऐसा निश्चय करके निर्मल बुद्धिमान मानव को मन, वचन, काय तीनों प्रकार से शरीर को लाभ देने वाले और आत्मा का बुरा करने वाले पदार्थों को या भावों को छोड़ देना उचित है। - इसी तथ्य की अभिव्यक्ति करते हुए श्री पूज्यपादाचार्य लिखते हैंराज्जीवस्योपकाराय, तद्देहस्यापकारकम् । राधेहस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम् ॥ ( इष्टोपदेश - ९८ ) अर्थात् :- जो जीव (आत्मा) का उपकार करने वाले होते हैं, वे शरीर का अपकार (बुरा) करने वाले होते हैं। जो चीजें शरीर का हित या उपकार करने वाली होती है वही चीजें आत्मा का अहित करने वाली होती हैं । २०४६

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