Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 45
________________ सज्जनचित्तवलभ विषयासक्ति पर अंकुश लगा ले अर्थात् तपोमार्ग में प्रवृत्त हो जावे तो भी वह अपने जीवन को सार्थक कर सकता है। जो स्वस्थ शरीर को पाकर भी विषायासक्ति को नहीं छोड़ता, उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है। प्र ३. इस अनादि संसार में जीव को मनुष्य पर्याय का लाभ अत्यन्त कठिनता से होता है। उसमें भी उच्चकुल, दीर्घायु, आरोग्यसम्पन्नता और धर्मभावना का होना कठिन है। आचार्य श्री स्वामी कुमार लिखते हैं। - इय सव्व दुलह- दुलहं दंसणणाणं तह्रा चरितं च । मुणिऊणय संसारे महायरं कुणह तिन्हं पि ॥ (कार्तिकेयानुप्रेक्षा - ३०१ ) अर्थात् :- इसलिए जिसे चारित्र की प्राप्ति हो गयी है वह धन्य है । मोक्ष का साक्षात् कारण चारित्र है । उसको प्राप्त करके भी जो उसका आदर नहीं करता उसका जीवन व्यर्थ है ! आचार्य भगवन्त समझाते हैं कि जो जीव धन पाकर दान नही करता, तन पाकर चारित्र का पालन नहीं करता और चारित्र को प्राप्त करके भी उसमें आदर नहीं करता उन तीन तरह के जीवों का जीवन ठीक उसीप्रकार व्यर्थ है जैसे बकरी के गले के स्तन व्यर्थ होते हैं । दुर्लभत्व का बोध लब्ध्वा मानुषजातिमुत्तमकुलं रूपं च नीरोगतां, बुध्दिधीधनसेवनं सुचरणं श्रीमज्जिनेन्द्रोदितम् । लोभार्थं वसुपूर्णहेतुभिरलं स्तोकाय सौख्याय भो देहिन्देहसुपोतकं गुणभृतं भंक्तुं किमिच्छास्ति ते ॥२१॥ अन्वयार्थ : ( भी ) हे मुझे ( मानुषजाति) मनुष्यजाति (उत्तमकुलम् ) उत्तम कुल (रूपम्) रूप (निरोगताम् ) आरोग्य (बुद्धि) बुद्धि (धीधन - सेवनम् ) पण्डितों के द्वारा सेवा (श्रीमज्जिनेन्द्रो दितम् ) श्री जिनेन्द्र प्रभु के द्वारा कथित (सुचरणम् ) सम्यक् चारित्र को ( लब्ध्वा ) प्राप्त . करके (वसुपूर्णहेतुभिः) धन की पूर्णता के लिए (लोभार्थम्) लोभ के एयर ३९

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