Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 36
________________ RRRRRRR मन्जनविजवाहर ____ जो शरीर के स्वरूप को जाने बिना उस पर मोह करता है वह आपने जीवज को व्यर्थ खो देता है। कैसा है यह शरीर ? इस शरीर के स्पर्श होजे से केशर, चन्दन, पुष्प एवं सुगन्धित वस्तुयें अपवित्र हो जाती है. इस शरीर से प्रतिदिन, प्रतिसमय लगातार मल बहता रहता है। अतः भव्य जीव को शरीर का मोह छोडकर आत्मोद्धार कर लेना चाहिये। मनुष्यायु कैसे व्यतीत होती है ? आयुष्यं तव निद्रयार्द्धमपरं चायुस्त्रिभेदादहो, बालत्वे जरया किमद् व्यसनतो यातीति देहिन् वृथा। निश्चित्यात्मनि मोहपाशमधुना संछिद्य बोधासिना , मुक्तिश्रीवनितावशीकरणसच्चारित्रमाराधय ॥१६॥ अन्वयार्थ : (अहो) अहो (दे हिन् !) हे शरीरधारी । (तव) तुम्हारी | (अर्धमायुष्यम्) आधी आयु (निद्रया) निद्रा में (अपरम्) अन्य (बालत्वे जरया) बाल और वृद्धावस्था में तथा (कियद् व्यसनतः) कुछ व्यसनों से. इसप्रकार (रिभेदात्) तीन प्रकार से (वृथा याति) व्यर्थ हो जाती है। (अधुना) अब (आत्मनि) आत्मा में (निश्चित्य) निश्चय करके (बोध असिना) ज्ञान रूपी तलवार से (मोहपाशं संछिद्य) मोहपाश का छेदन करके (मुक्तिश्रीवनितावशीकरण) मुक्तिरसपी लक्ष्मी को वशीभूत करने वाले (सच्चारित्रम्) सम्यक चारित्र की (आराधय)। आराधना करो। अर्थ : हे देहिन् । अहो तेरा आधा आयुष्य निद्रा में दसरा आधा आयुष्य | बालपन और बुढाऐं में, कुछ व्यास जों में, इन तीन प्रकारों से व्यर्थ हो जाता है । इसप्रकार अब स्वयं निश्त्तय तरके ज्ञान रूपी तलवार से | मोहपाश का छेदन करके मुक्तिश्री को वश में करने के लिए सत्त्वारित्र | की आराधना करो।

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