Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 32
________________ बिगहाल्छ | से विहत (व्याकुल) होकर उन बतों को खण्डित करना चाहते हो ? क्या कोई भूरत से बत्त होत र अपलो नमन को खाना चाहता है ? नहीं। | भावार्थ: मुनिराज के पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक और सात विशेष गुण ये अहाईस मूलगुण होते हैं तथा बारह तप और बाईस परीषह ये चौतीस उत्तरगुण होते हैं। इनमें से मुख्य गुणों को मूलगुण कहते हैं। जो गुण मूलगुणों की रक्षा | एवं वृद्धि करते हैं, उन्हें उत्तरगुण कहते हैं।। . | साधक दीक्षा के समय देव. शास्त्र और गुरु की साक्षी से मूलगुण | और उत्तरगुणों की निरतिचार परिपालना करने का संकल्प करता है। आचार्य भगवन्त मुनिराज को सम्बोधित करते हैं कि - हे मुने ! तुमने दीक्षा ग्रहण करते समय देव. शास्त्र और गुरु की साक्षी से व्रत गृहण किये थे । अबतक तुमने उन्हें निरतिचार पाला भी है। आज अत्यधिक शीतलता हो गयी है। शीतवायु से आकुलचित्त वाले होकर तुम व्रतों को रतण्डित करना चाहते हो तथा शीत को दूर करने के उपाय स्वरूप अग्नि आदि भोग्य वस्तुओं को ग्रहण करना चाहते हो । विचार तो करो। अज्ञानी, दरिद्री क्षुधातुर व्यक्ति भी अपने वमन को नहीं खाना चाहता। तुम तो ज्ञानी हो । त्यागी हुई वस्तुओं को पुनः गृहण करने की भावना क्यों करते हो ? तुम्हें धीरतापूर्वक इन परीषहों को सहन करना चाहिये ताकि कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष की प्राप्ति हो सके। धर्म करने की प्रेरणा अन्येषां मरणं भवानगणयन्स्वस्यामरत्वं सदा, देहिन् चिन्तयसीन्द्रियद्विपवशी भूत्वा परिभ्राम्यसि । अद्य श्वः पुनरागमिष्यति यमो न ज्ञायते तत्वत - स्तस्यादात्महितंकुरुत्वमचिराद्धर्मं जिनेन्द्रोदितम्॥१४॥ अन्वयार्थ : (देहिन् !) हे जीव ! (भवान्) आप (अन्येषां मरणम्) दूसरों के मरण को (अगणयन) नहीं गिनते हुए (सदा स्वस्थ) हमेशा अपने

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