Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 18
________________ S R I मजनचिनबह साल अन्वयार्थ : (मिनी ।): । (:: ितसि .. मा में (धनाकांक्षा भवेत्) पल की आकांक्षा है (तर्हि) तो (दीक्षााहणेन किम्) दीमागहण करने से क्या लाभ है ? (अनेन वेषधारणेन किम्) इस वेष को १२ करने से क्या लाभ है ? (गार्हस्यम्) गृहस्थावस्था को (असुन्दरम् मन्यसे) असुन्दर मानते हो ? (द्रव्योपार्जन चित्तमेव) दत्य को उपार्जन करने की इच्छा ही (आभ्यन्तरस्थ) अन्तरंगस्थ (अङ्गनां कथयति) नारी को कहती है । ( जो चेत् ) यदि ऐसा नहीं है तो (अर्थपरिग्रहलह) अर्थ खपी परियह को ग्रहण करने की (मतिर्न सम्पद्यते) मति ही उत्पन्न नहीं होती। अर्थ: हे भिक्षुक ! यदि तेरे मन में धन की अभिलाषा है तो फिर दीक्षा अहण करने से तुझे क्या लाभ हआ ? तु गृहस्थपने को बुरा मानता है किन्तु इस मुनिवेष से क्या लाभ होना है ? द्रव्योपार्जन की आसक्ति स्त्री के प्रति तेरी अभिलाषा को स्पष्ट करती है, नहीं तो यह परिग्रह के संचय करने की बुद्धि तुझ में उत्पन्न ही क्यों होती ? भावार्थ: आचार्य भगवन्त मुनिराज को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं कि - के मुनिराज ! आपको मन में धन की आकांक्षा नहीं करनी चाहिये । यदि आपके मन में धन की आकांक्षा उत्पन्न हो जाये तो फिर गार्हस्थ्य और मुजिएद में अन्तर ही क्या रहा ) आपके मन में धनादि की अभिलाषा स्त्रीजनों के पति अाकर्षण को ही अभिव्यक्त करती है क्योंकि ऐसा नहीं होता तो फिर परिगह रूपी पिशाच को पालने की बुल्दि आपके मन में उनकी तयों होती ? आत्तार्य श्री शुभचन्द्र समझाते हैं .. गादिविजयः सत्यं क्षमा शौचं वितृष्णता। मुनेः प्रयत्यते ननं सङ्गैत्यभोहितात्मनः ॥ (ज्ञानार्णव - ८३३)

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