Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 19
________________ सज्जनचित्तवालभ अर्थात् :- जिस मुनि का चित्त परिग्रह से मोहित हो जाता है, उसके रागादिक का जीतना, सत्य, क्षमा, शौच और निर्दोभिता आदि गुण विनष्ट हो जाते हैं। इसी आशय को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री अगेनति जी ने लिखा है सद्रत्नन्रथपोषणाय वपुषस्त्याज्यस्य रक्षापराः । दत्तं येऽशनमात्रकं गतमलं धतशिविकृतिः ॥ लज्जन्ते परिगृहा मुक्तिर्विषये बद्धस्पृहा निस्पृहा - स्ते गृह्णन्ति परिग्रहं दमधरा किं संयमध्वंसकम् ॥ ( तत्त्व भावना - १०४ ) अर्थात् :- जो मोक्ष के संबंध में अपनी उत्कण्ठा को बांधने वाले सांसारिक इच्छा के त्यागी हैं और सच्चे रत्नत्रय धर्म को पालने के लिए त्यागने योग्य इस शरीर की रक्षा में तत्पर हैं और जो धर्मात्मा दातारों से दिये हुए दोषरहित भोजन को करपात्र में ग्रहण करके लज्जा को प्राप्त होते हैं वे संयम के धारी यति क्या संयम को नाश करने वाले परिग्रह को ग्रहण कर सकते हैं ? बाह्य परिग्रह मूर्च्छा का प्रमुख कारण है । मूच्छ से मन विक्षिप्त हो जाता है। विक्षिप्त हुए मन से साधना नहीं की जा सकती। अतः आत्म कल्याण करने के इच्छुक साधक को परिग्रह का पूर्णरूप से त्याग कर देना चाहिये । मुनियों का कर्त्तव्य योषा पाण्डु कगोविवर्जितपदे संतिष्ठ भिक्षो सदा, भुक्त्वाहारमकारितं परगृहे लब्धं यथासम्भवम् । षड्धावश्यक सत्क्रियासु निरतो धर्म्मानुरागं वहन् सार्द्धं योगिभिरात्मभावनपरो रत्नत्रयालंकृतः ॥६॥ अन्वयार्थ : ( भिक्षो !) हे साधो । (त्वम्) तुम (सहा) हमेशा ( योषा ) स्त्री ( पाण्डु क) नपुंसक (गो - विवर्जित पदे) पशुओं के द्वारा छोडे गये स्थान पर ( सन्तिष्ठ ) निवास करो । ( परगृहे ) दूसरों के घर में (यथासंभवम्) जहाँ तक संभव हो (अकारितम् आहार) अपनी प्रेरणा २२ १३ .

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