Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ रामजनपिनबाभळ वर्ग ही छोड़ती है । उसे देखकर भी जिसके मन में निर्वेगता नहीं है, उसने पृथ्वी पर ऐसी अन्य कौउसी वस्तु होगा जो वैरा का कारक बन सके। भावार्थ: अनन्तरपूर्व इलोक में शरीर की अशुचिता का संक्षेप से वर्णन किया गया था। इस श्लोक के द्वारा पुनः उसी का वर्णन किया गया है। इस शरीर से पतिसमय मुख, दो नासापुट, दो आँख. दो कान, मलद्वार और मूत्रद्वार, टो नौ ब्दार मल को बहाते रहते हैं । इस शरीर को चाहे चन्दनादि सुगन्धित पदार्थो से संस्कारित किया जाये या सागर के | जल के समान विशाल जल से धोया जाये तो भी इसकी स्वाभाविक मलिनता नहीं जा सकती। यह अपवित्र शरीर अपने सानिध्य में आये हुए पवित्र पदार्थों को भी अपवित्र बना देता है। आचार्य भगवन्त पूछते हैं कि - हे यते । शरीर की इतनी घृणित | दशा को देखकर भी तुम्हें वैराग्य नहीं होला, तो ये बताओ कि किस वस्तु को देखकर तुम्हें वैराग्य होगा ? अर्थात् फिर वैराग्य के उत्पन्न होने की कोई संभावना नहीं है। स्त्रियों को दूर से ही छोड़ने की प्रेरणा स्त्रीणां भावविलास विभ्रमगतिं दृष्ट्वानुराग मनाग्मागास्त्वं विषवृक्षपक्वफलवत्सुस्वादवन्त्यस्तदा। ईषत्सेवन मात्रतोऽपि मरणं पुंसां प्रयच्छन्ति भोः, तस्माद् दृष्टि विषाहिवत्परिहर त्वं दूरतो मृत्यवे ॥१०॥ अन्वयार्थ : (भो !) है साधी । (स्त्रीणाम् ) स्त्रियों का (भावविलास विश्नमगतिम्) भावविलास से युक्त विभमगति को (दृष्ट्वा ) देखकर (त्वम्) लुम (मनागपि) यत्किंचित् भी (अनुरागां मा गाः) अनुराग मत करो · (विषवृक्षपक्वफलवत्) विषवृाल के पक्के हए फल के समान

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58