Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 28
________________ Rooमन्जनाचत्तबार यहाँ साचार्य भगवन्त मुनिराज को सम्बोधित करते हैं कि हे यते ! रित्राव भाव भंगिमा ती दिभमयुक्त को हेडकर 011वलित of अनुशा मत करो । ये स्त्रियाँ विषवृक्ष के पके हए सुन्दर फलों के समान सुस्वाद होती हैं । यदि इनका थोडा सा भी सेवन किया जाता है लो पुरुष को काल -कवलित होना पड़ता है । जिसप्रतार विषवृक्ष का फल रचाह में तो अत्यन्त मिष्ट लगता है. परन्तु थोड़ा सा श्री खाये जाने पर भरणमा तराण करना पड़ता है । उस्ग के समान समस्त स्त्रियाँ भोला के काल में तो अच्छी लगती है परन्तु अगल में हारक में ले जाने वाली होती हैं। जिसप्रकार दृष्टि विष जाति के सर्प को दूर से ही त्यागा जाता है, | उस प्रकार भोगों के कारण रूप इस स्त्री का दूर से ही त्याग कर देना चाहिये । मोक्ष को प्राप्त करने के लिए आवश्यक ऐसी विवेकबुद्धि को जागृत रखने के लिए यही सर्वोतम उपाय है ।। शरीर का मोह त्यागने की प्रेरणा यद्यब्दाञ्छति तत्तदेव वपुषे दत्तं सुपुष्टं त्वया, सार्द्ध नैति तथापि ते जड मते मित्रादयो यान्ति किम् । पुण्यं पापमिति द्वयञ्च भवतः पृष्टे नुयातीहते, तस्मान्मास्मकृथा मनागपि भवान्मोहं शरीरादिषु ।।११।। अन्वयार्थ : ( भते।) हे मन्दबुद्धिधारी ! (इदं शरीरम) राह शरीर (यद - यत् वस्तु) जो जो वस्तु (भवतः) आग्रसे (वाछ ति) चाहता है (त्वया) तेरे द्वारा (तद् तद् एव) वही-बही (वपुषे) शरीर के लिए (सुपुष्ट म्) पु. करने वाली (वस्तु दतम्) वस्तुयें ही गई । (तथापि) फिर भी वह (ते सार्द्धम् ) आपके साश्च (नैति) नहीं जाता। तब (किम्) त्या (मित्रादयो यान्ति) मित्रादिक जायेंगे? (इह) इस लोक में (ते) आपका (पुण्यं पापं दयं च) पुण्य और पा से हो है। (भवतः) 1 (पष्ट आयाति) पी जाता है ।

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