Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 29
________________ लमज्जरित्तवाला हा (तस्मात्) इसीलिए (अरीरादिषु) शरीरादि से (भवान्) आप (मनाक अपि) विचित भी (मोहम्) म्योह को (मा स्म कृथा.) मत नशे । अर्थ : हे जड़मते । तुमसे इस शरीर ने जो जो वस्तुयें चाही, तुमने शरीर को वही-वहीं पुष्टि कारक वस्तुयें ही किन्तु यह शरीर तुम्हारे साथ नहीं जाता । फिर मित्रादिक कैसे जायेंगे ? इसलोक में कमाए पुण्य और पाप ये दो ही तुम्हारे साथ जाले हैं, इसलिए तुम शरीरादिक में किंचित् भी मोह मत करो। भावार्थ: इस श्लोक में अन्यत्वभावना का संक्षिप्त वर्णन किया गया है । पण्डितप्रवर द्यानतराय जी ने लिखा है कि - जहाँ देह अपनी नही, तहाँ नअपना कोय। घर संपत्ति पर प्रगट है, पर हैं परिजन लोय ॥ (बारह भावना - ५) अर्थात् :- जहाँ शरीर ही अपना नहीं है, वहाँ और कुछ भी अपना कैसे हो सकता है ? घर, संपत्ति, परिजन लोग तो प्रकट में ही पर हैं। | कवि गौतम दारा विरचित संबोध पंचासिया अन्य की गाथा अतारह की टीका में टीकाकार ने बहुत अच्छी उत्प्रेक्षा की है । यथा - पुद्गलमयं शरीरं कथयति। किम् ? अहं पुद्गलमयं शरीरं हुताशन मध्ये प्रज्वलामि, काष्ठाग्निभक्षणं करोमि | परन्तु अनेन जीवेन सह न गच्छामि। अर्थात् :- पुद्गलमय शरीर कहता है । क्या कहता है ? मैं पुद्गलमय शरीर अग्नि में जल जाऊंगा, काष्ठाग्नि को भक्षण करूंगा परन्तु इस जीव के साथ नहीं जाऊंगा। यह शरीर कृतोपकार को विस्मृत करने वाला कृती है । इसे कितना ही खिला कर घुष्ट करो, इसको कितनी ही मनोनुकूल वस्तुयें प्रदान करो यह जीव के साथ प्राभल में मन नहीं करता । जब स्व

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