Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 20
________________ काल मज्जनचिनमा छ के बिना आहार को (लां) प्राप्त करते (भुक्रवा) खाकर (षडावश्यक सरिक़यासुनिरतः) छह सावश्यक रूप समीतीज कियाओं में रत रहते हए (धर्मानुरागं तहम् ) धानुराग को करते हुए (योगिभिः साई) योनियों के साथ (आत्मभावनापरः) आत्मा की भावना करते हुए (रत्नत्रयालातः) रत्नत्रय से अलंकृत होओ। अर्थ : हे भिक्षुक ! तुम सदैव स्त्री. नपुंसक और पशुओं के द्वारा छोडे गये | स्थान पर रहो । कैसे रहना है ? परगृह में राथासंभव अपने द्वारा प्रेरित न किया गया हो. ऐसा आहार प्राप्त करके खाओ. षडावश्याक क्रियाओ में रत रहते हुए, धर्मानुराग को बढाते हए. योगियों के साथ रहते हुए, आत्म-आराधना पूर्वक रत्नत्रय से अलंकृत रहो । भावार्थ: इस श्लोक में साधुओं को अपने आचरण में पवित्रता बनाये रखने | के लिए कुछ दिशानिर्देश दिये गये हैं। यथा - 1. एकान्त स्थान में निवास : • आत्मसाधना में जनसम्पर्क अवरोध उत्पन्न करता है। आगर्य श्री पूज्यपाद देव इसे स्पष्ट करते हैं कि - जनेभ्यो वाक्तत: स्पन्दो मनश्चित्तविभ्रमा:। भवन्ति तस्मात्संगर्गजनेर्योगी ततस्त्यजेत् ॥ (समाधिशतक-७२) अर्थात् :- मनुष्यों से अनेक प्रकार की बातें सुनने को मिलती हैं। उन बातों को सुनने से आत्मा के परिणामों में हलन-चलन होता है, उससे मन में विविध प्रकार के क्षोभ या चित्तविक्षेप होते हैं । इस कारण से आत्मध्यान करने वाले मुनि को अन्य मनुष्यों के साथ सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये। ____ वर्तमानकालीन मुनियों को वन में रहने का निषेध आचार्य श्री हेवसेज तथा आचार्य श्री शिवकोटि प्रति आचार्यों ने किया है। ज्ञाजार्णव में मुनियों के आवास के योग्य स्थानों के वर्णन में देवकुन (मन्दिर) और आगन्तुकागार (धर्मशात्ना) में रुकने का आदेश है इसके अतिरिक्त

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