Book Title: Sajjanachittvallabh
Author(s): Mallishenacharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 11
________________ ROमजनचित्तबल्लभ MARRRRRI अन्वयार्थ : (वेडे न च्युतः) केंचुली को छोड़ने मात्र से (पन्नगः) सर्प (भूतले)। इस भूतन पर (किम्) क्या (गतविषः जातवान्) विषरहित हो जाता है ? (भो मुनि!) हे साधो ! (एतावता) इन (वस्त्रत्यजनेन) वस्त्रों का त्याग करने से (असौ) वह (किम) क्य! (मुनिर्जायते) मुनि हो जाता है ? (तपसो मूलं) तप का मूल (किम्) क्या है ? (क्षमेन्द्रियजयः) क्षमा और इन्द्रियजय (सत्यम्) सत्य तथा (सदाचारता) सदाचार है। (चेत् ) यदि (सः रागादीन विभर्तिः) वह रागादिकों का पोषण करता है की वह (सति ल) माण नहीं है । (केवलम्) केवल (लिङ्गी भवेत्। वेष को धारण करने वाला होता है। | अर्थ : हे साधो ! इन वस्त्रों के त्याग कर देने मात्र से ही क्या कोई मुनि हो जाता है ? केंचुली के छोडने से इस पृथ्वी पर क्या कोई सर्प निर्विष बन जाता है ? तपश्चर्या का मूल क्या है ? क्षमादि तथा इन्द्रियजय, सत्य और सदाचारपना । यदि साधु रामादि को ही पुष्ट करता है, तो वह साधु नहीं है, मात्र लिंगी होता है। भावार्थ :____ अनन्तरपूर्व श्लोक में चारित्रसम्पन्न बनने की प्रेरणा दी गयी थी। इस श्लोक में उसी बात को दृढ़ करते हैं। जिसप्रकार काँचली छोड़ देने मात्र से ही कोई सर्प विषरहित नहीं | हो जाता, उसीतकार चारित्र से रहित केवल बाह्य जग्त वेषमात्र से कोई | मुजि नहीं कहलाता । बाह्य में वस्त्रादिक परिग्रहों के त्याग के साथ | आभ्यन्तर में चौदह प्रकार के परिग्रह का त्याग करना अत्यन्त आवश्यक होता है। आध्यन्तर व बाह्यपरिग्रह के त्याग रूप चारित्र को ग्रहण करने वाला ही पूज्य होता है। आचार्य श्री अमितगति जी लिखते हैं कि - विनिर्मलं पार्वणचन्द्रकान्तं, यस्यास्ति शारिन्नमसौ गुणज्ञः।

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