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पूर्णतया मुक्त, प्रबुद्ध और निर्भय, “सत्ये नास्ति भयं क्वचित्" के सजग पक्षधर। तुम सागर की तरह ज्ञान के अक्षय कोष हो, फिर भी निरन्तर अनेकानेक चिन्तन-धाराओं को अपने में समा लेने वाले अद्भुत समन्वय-योगी हो। ऊँचे हो, बहुत ऊँचे हो, फिर भी ऊंचाइयों से आगे और अधिक ऊंचाइयों की तरफ यात्रा करते जा रहे हिमगिरि हो। कहीं भी, कभी अवरुद्ध न होने वाली सतत प्रवहमान पुण्यकर्म की त्रिपथगा; करुणा के साक्षात देवता। अतः तुम्हारे मंगल जन्मोत्सव में मेरी पूजा की सामग्री क्या अर्थ रखती है ? क्षुद्र है न वह ! तुम्हारी स्तुति-अभ्यर्थ में मैं क्या कह सकती हैं। क्या कर सकती हैं। यह केवल बाल-चापल्य ही है न! फिर भी महान दार्शनिक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की ये पंक्तियाँ कुण्ठित होते हुए मन को उत्साहित कर रही हैं और लग गई हूँ पूजा के उपक्रम में--
"बालोऽपि कि न निजबाहयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः।" "जल्पन्ति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि।--"
तुम सरस्वती के वरद पुत्र हो। तुम्हारी स्फटिक-स्वच्छ प्रज्ञा, अकाट्य तर्क, सत्यानुलक्षी प्रतिभा की रश्मियाँ जिस किसी विषय को छु जाती है, वह कितना ही गूढ़, गूढ़तर क्यों न हो, उजागर हो जाता है, जैसे कि सूर्य-प्रकाश में विराट जगत् । अध्यात्म की गहराइयों में सहज प्रवेश है तुम्हारा। जीवन-रहस्यों के सुदूर क्षितिज तक को स्पर्श करता हुआ विशाल, विस्तृत, नभ उत्तुंग हिमगिरि-सा सक्षम, गुरुगंभीर चिन्तन है तुम्हारा। वीरायतन इसी चिन्तन का एक निदर्शन है अस्तु, वीरायतन के कण-कण में एक स्वर व्याप्त है--
"किस विधि से पूजा हो तेरी, कौन अर्घ्य से तव पद पूजे।"
तुम्हारे इस अनोखे सर्व पूज्य एवं सर्व स्तुत्य दिव्य-चित्र का अंकन मेरी सामान्य तुलिका न कर पायेगी। क्या अच्छा होगा--जगत्-कल्याण के हेतु सहज विस्फुरित आपकी दिव्य वाणी में हम सब आपके दर्शन करें शब्दातीत को शब्दों में पाने का, स्रष्टा को सृजन में खोजने का यह एक नम्र प्रयास ही पूजा है। आपकी ही वस्तु आपके ही करकमलों में अर्पित है--
"त्वदीयं वस्तु पूजार्थ, तुभ्यमेव समर्प्यते ।" गुरुदेव, आप जैसे ज्ञान-देवता की अर्चना के हेतु, सुन्दर पूजा का उपकरण और कौन-सा हो सकता।
साध्वी चन्दना वीरायतन, राजगृह
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