Book Title: Sadhu Sadhvi Yogya Pratikraman Kriya Sutro
Author(s): Sirsala Jain Pathshala, 
Publisher: Sirsala Jain Pathshala

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Page 292
________________ साधु मूत्र प्रति अर्थः ॥२०॥ ( अयोग्यमपि) एटले अयोग्य एवो, पण मई के ( मां) एटले मने, मा अबहीरिय के० ( मा अवधीरय ) एटने मां अवगएएना करो. केम जे, निरंजण के ( हे निरञ्जन ) एटले पाप कर्मरूप अंजन जेने नथी ते निरंजन कहीए. अर्थात् सर्वथा निदोष एवा तमे, पास के ( पश्य ) एटले मने देखो. अर्थात् मारा उपर कृपा कटाक नाखो तमारी कृपादृष्टिथी हूं निरंजन थतं. पण अवगणना पामवान पात्र न थनं. जेनी दृष्टिमां राग देष रूप अंजन रडं ले तेवा पुरुष मारानपर दृष्टिकरी, तो पण सुं? अने न करी तोपणशुं? माटे हे श्री निरंजन एवा पार्श्वनाथ ! तमो मारा नपर कृपादृष्टि करो; जेथी मारूं सघलुं कार्य सि. ६ थाव. ए नाव बे. ॥ ॥ ला-हेजगवन्! तमो प्रसन्न थान एटलं आ स्तुति करवानुं कारण ले. एटले तमारी प्रसन्नतामांज सर्व कार्यनी सिदि रही है। एम कहे दे. ॥ हन बहुविद-उद-तत्त-गत्तु तुह उह-नासण-परु । हन सुयलह करुणिक-ठाणु तुहु निरु करुणापरु ।। इन जिण पास असामि-सालु तुडु तिदुअण-सामिय । जं अवहीरहि मई, ऊखत श्य पास न सोहिय ॥ २३ ॥ अर्थ:-हे जगवन् ! हन के0 ( अहं ) एटले हुं जे ते, बहुविधदुहतत्तगत्तु के० (बहुविधदुःखतप्तगात्रः ) एटले घणा प्रका. रना दुःखको तप्यु ले शरीर ते जेनुं एवो, अने तुद के० (वं ) एटले तमो दुहनासापरु के० (दुःखनाशनपर ) एटले दुःखनो नाश करवामां तत्पर एवा. तथा हन के० ( अ ) एटले हुँ जे ते, मुयणह के0 ( मुजनानां ) एटले सङनोनी करुणिक्कठाणु inta के० ( करुणौकस्थानं ) एटले दया करवान एक कहेतां एबुं बीजें नही माटे अदितीय एवु स्थान रूप एवो. अने, तुह के (वं) एटले तमो निरु के (अव्ययम् ) निश्चे, करुणापरु के० (करुणापर:) एटले दयाने विपे तत्पर एवा. एटले दयामयमूर्ति एवा. अथवा करुणायरु के० ( करुणाकरः) एटले दयानी खनीरूप, अर्थात् जेम रत्ननी खांणमांथी रत्न उत्पन्न याय, Jain Education Internal For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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