Book Title: Sadhu Sadhvi Yogya Pratikraman Kriya Sutro
Author(s): Sirsala Jain Pathshala, 
Publisher: Sirsala Jain Pathshala

View full book text
Previous | Next

Page 302
________________ साधु प्रसिद्ध ॥२९४॥ सुपन रूप चित्त जान || १० || मेरा मेरा क्या करे । तेरा है नही कीय || चिदानंद परिवारका | मेला हे दिन दोय ॥ ११ ॥ एसा जाब निहारतां । कीजें ज्ञान विचार || मिटे न ज्ञान विश्वार विा । अंतर राग विकार ॥ १२ ॥ ज्ञान रवि वैराग्य जस हिरदे चंद समान | तास निकट कहो केम रहे । मिथ्या तम दु:ख खाण ॥ १३ ॥ आप आपग रूपमें । माणान ममत मल खोयनिय रहे समता रति । तास बंध नवि कोय ॥ १४ ॥ परपरणति परसंगसुं । उपजत बिनसंत जीव || मिथ्या मोह परजावको । चलयास सदिव ॥ १५ ॥ जेसे कंचुकी यागसें । बिनसत नहीं जुजंग || देह सागयी जीव पण । तेसे रहत - जंग ॥ १६ ॥ जो उपजे सो तुं नहि । निसें ते पण नांहि || छोटा मोटा तु नही । समज देख दिलमांदी ॥ १७ ॥ वरण बांख तोमें नहीं । जात पात कुल रेख || रावरंक तुंही नहीं । नही बाबा नहीं जेख ॥ १७ ॥ तुं सौमें सौयी सदा । न्यारा - लख संरूप ॥ कथ कथा तेरी महा । चिदानंद चिदरूप ॥ १७ ॥ जनम मरण जिहां है नही । ईन जीत लवलेश ॥ नहि शिर या नारदकी । सोही आपणा देश || २० || विनाशिक पुरुलदशा । अविनाशी तुम आप || आप आप विचारतां । मिटे पुन्य रु पाप ॥ २१ ॥ बेमी लोह कनकमयी । पाप पुन्य जग जाता | दोययकी न्यारा जला । निज स्वरूप पहिबान ॥ २२ ॥ जुगलगति शुन पुन्यथी । इतर पापथी जोय ॥ चारो गति निवारीए तब पंचमी गति होय ॥ २३ ॥ पंचमी गति बिन जीवकुं । सुख तिहुं लोक मोकार || चिदानंद नवि जाणजो । एह मोटो निरधार ॥ २४ ॥ एह विचार हिरदे करत । ज्ञान ध्यान रसलीन || निरविकल्प रस अनुजवे । विकलपता होय विन्न || २५ || निरविकल्प उपयोगयें । रहे समाधिरूप ॥ मचल ज्योत फलके तिहां | पावे दर्श अनूप ॥ २६ ॥ देख दर्श प्रभूत महा | काल त्रास मिट जाय ॥ ज्ञान जोग उत्तम द"शा | सद्गुरु एह बताय ॥ २१ ॥ ज्ञानालंबन प्रौढ ग्रही । निरालंबता जाव || चिदानंद निय कीजीये । एहीज मोक्ष उपाय ॥ २८ ॥ थोमानायें जाओ । कारजरूप विचार ॥ कहत सुनत कछु ज्ञानकों क न यावे पार ॥ २७ ॥ में मेरा ए जावथी । बधे राग अरु रोष ॥ राग दोस जोलों हीए । तोंडयो मिटे न दोष ॥ ३० ॥ राग छेप जाऊं नहीं | ताकुं काल न खाय ॥ काल जीत जगमें रह्यो । एहीज मोक्ष उपाय || ३१ ॥ चिदानंद निस कीजीयें। समरण सासोसास ॥ बखत अमोल जा त है | खास खवर नही तास ॥ ३२ ॥ ॥ इति प्रस्ताविक हा समाप्तः ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only सूत्र अर्थः ॥२५४॥ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372