Book Title: Sadhu Sadhvi Yogya Pratikraman Kriya Sutro
Author(s): Sirsala Jain Pathshala,
Publisher: Sirsala Jain Pathshala
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॥ ३२४ ॥
पूरतो, जर आणी अंग ॥ ५० ॥ सो रामा जीनं ताहरी, क्षणमांदी विधाय ॥ स्वारय पहोंचत जब रह्यो, तब फरि वैरी या ॥ ५१ ॥ समुदीप सायर सबे, पामे को नर पार || नारी बिए चरित्रनो को नवि पाम्यो पार ॥ ५२ ॥ ब्रह्म नारायण ईश्वर, ई च नर कोम ॥ ललना वचनें लालची, ते रह्या वे कर जोम ॥ ५३ ॥ नारी वंदन सोहामणुं, पण वाघणवतार ॥ जेनर एहने वश पड्या तस लूटयां घरवार || ४ || हसतमुखी दीले जली, करति कारमो नेह ॥ कनकलता बाहिर जेसी, अंतर पित्तल तेह ||२५|| पहेलि प्रति करि रंगथं, मीठा बोली नार ॥ नरने दास करि आपणो, मूके टाकर मार ॥ ५६ ॥ नारी मदन तलावमी, वूड्यो सयल संसार ॥ काढणहारो को नही, बूला बन कर ॥ ५१ ॥ वीश बनाना जे नरा, कोइ नही. तस बैंक || नारी संगति तेहने, निर्थे चढे कलंक ॥ ५८ ॥ मुंज ने चंरुद्योतना, दासीपति पाम्या नाम || अजयकुमार बुधि यागलो, तेह ठग्यो अजिराम || ५ || नारी नहि रे बापका, पण ए विषनी वेल || जो सुख वांबे मुक्तिनां, नार संगति मेल ॥ ६० ॥ नारी जगमां ते जली, जिए जायो पुरुष रतन्न || ते सतिने नित पाय नसुं, जगमां ते धन धन्न ॥ ६१ ॥ तुं पर का मकरी सदा, निज काज न करिय लगार ॥ अत्र नक्षत्र करिय तुं, किस छुटोश जव पार ॥ ६२ ॥ पाप हो पूरण जरी, तें लीन शिर जार ॥ ते किम छुटिश जीवमा, न करी धर्म लगार ॥ ॥ ६३ ॥ इमुं जाणी कूम कपट, बल बि तुंबांम ॥ ते बांकीनें जीवमा, जिन धर्मै चित्त मां ॥ ६४ जिए वचने पर दुख हुए, जिस होय प्राणीघात ॥ क्लेश पके निज आतमा, तज उत्तम ते वात ॥ ६ ॥ जिम तिम पर सुख दीजियें, दुःख न दीजें कोय || दुःख देइ दुख पामियें, सुख देश सुख होय ॥ ६६ ॥ पर तांत निंदा में करे, कूमां देवे आल | मर्म प्रकाशे परतला, तेथी जला चंमाल ॥ ६१ ॥ पटमासीनें पारणे, इक सिलहे आहार ॥ करतो निंदा नवि टले, तस दुर्गति अवतार ॥ ६० ॥ बार उपर जिम लीपणुं, तिम को तप की ॥ तस तप जप संजम मुधा. एके काज न सोध ।। ६९ ।। पूर्व कोमिने यानखे, पार्ली चारित्र सार ॥ सुकृतो सवि तेहनुं.
॥
मां होवे बार || 90 | पर अवगुण सरशव समो, अवगुण निज मेरु समान ॥ कां करे निंदा पारकी, मूरख प्रापण शान || ११ || पर अवगुण जिम देखियें, तिम परगुण तुं जोय ॥ परगुण लेतां जोवमा, प्रखय जरामर होय ॥ १२ ॥ क्रोधी नर सदा, कहिये जे उलटी रीश ॥ ते बोमो दुर आतमा रहे जोय पणवीस ॥ ७३ ॥ गुण कीधा माने नही, अवगुण मांगी मूल ॥ ते नर संगति बांकियें, पग पगमां घासूल ॥ १४ ॥ निंदा करे जे आपणी, ते जीवो जंगमांय ॥ मल मूत्र
साधु
प्रति,
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सूत्र
अर्थ
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