Book Title: Purusharth Siddhi Upay
Author(s): Amrutchandracharya, Vishuddhsagar
Publisher: Vishuddhsagar

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Page 12
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 12 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 भो चेतन! विश्व में दुःखी व्यक्ति बहुत हैं, उनमें अनेक के दुःख का कारण है हीनभावना, जो वर्तमान का सुख नहीं भोगने दे रही हैं भो ज्ञानी! जहाँ हीनभावना प्रारंभ हो जाये, वहाँ वर्तमान का सुख समाप्त हो जाता है, क्योंकि उसने भविष्य निहारा नहीं है और भूत, भूत हो चुका है तथा वर्तमान को हीनभावना में व्यतीत कर रहा है, इस प्रकार उसने अपने तीनों काल नष्ट कर दियें अहो! भविष्य तुम्हारे सामने हैं जैसा वर्तमान का परिणमन होगा वैसा भविष्य बनेगां भूत तेरा मर चुका है, भूत के बारे में सोचकर क्या तुम भविष्य को निर्मल कर सकोगे ? हीनभावना से भरे इन्द्रभूति के सामने एक शिष्य ने दौड़ते हुए आकर कहा-गुरुदेव ! वहाँ तो मनुष्यों एवं तिथंचों की पंक्तियाँ लगी हुई हैं और यहाँ तक कि बंदर, भालू, सिंह, नेवला तथा सर्प भी एकसाथ विचरण कर रहे हैं तब वह देखने पहुंचते हैं तो देखते ही दंग रह गये, परन्तु मन में अहं और हीनभाव एकसाथ चल रहे हैं भो ज्ञानी! यह प्रभु वर्द्धमान का नहीं, यह वर्द्धमान की कैवल्यज्योति का प्रभाव थां श्वेताम्बर आगमग्रंथों में उल्लेख आया है कि तीर्थंकर महावीर स्वामी पर लोगों ने अनेक प्रकार के उपसर्ग किये, परंतु दिगम्बर आम्नाय में ऐसा उल्लेख नहीं हैं सिद्धांत यह कहता है कि तीर्थकर पर उपसर्ग नहीं होते ,किन्तु हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से अनहोनी घटनाएँ घट गई कि तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ और अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी पर उपसर्ग हुआं तीर्थंकर की कन्यायें नहीं होती, लेकिन प्रथम तीर्थंकर की पुत्रियाँ हुई चक्रवर्ती का मान भंग नहीं होता, परंतु प्रथम चक्रेश का मान भंग हो गयां तीर्थंकर का जन्म अयोध्या में ही होता है और निर्वाण सम्मेदशिखर में होता हैं यही दो शाश्वत- भूमियाँ हैं प्रलयकाल में भी यहाँ पर वज्र स्वस्तिक का चिन्ह रहता हैं अयोध्या जन्मभूमि है, सम्मेद शिखर निर्वाणभूमि हैं प्रत्येक भरतक्षेत्र में एक-एक अयोध्या और एक-एक सम्मेदशिखर होता हैं पाँच भरतक्षेत्र हैं, पाँचों में अयोध्या और सम्मेदशिखर हैं परन्तु हुण्डावसर्पिणीकाल के प्रभाव से ऐसी अनहोनी घटना हुई कि कुछ तीर्थंकरों का जन्म अन्य नगरी में हुआ और निर्वाण भी अन्य क्षेत्रों में हुआं प्रथम तीर्थेश का निर्वाण कैलाशपर्वत पर हुआ. भो ज्ञानियो! हुण्डावसर्पिणी के बहाने ऐसी अनहोनी घटना मत घटा देना कि पंचमकाल में भी तीर्थकर होते है, अन्यथा अनर्थ हो जायेगां तीर्थंकर किसी के कहने से नहीं बनेंगे और जो बन चुके हैं, वह किसी के कहने पर मिटेंगे नहीं परंतु ध्यान रखना, जिनवाणी के अपमान से दर्शन मोहनीय कर्म का बंध करके सत्तरकोड़ाकोड़ी स्थिति बांधकर संसार में जरूर भटक जाओगें इसलिए जिसे संसार से भय है, वही मुमुक्षु हैं अहो! अग्नि एक ही पर्याय को जलायेगी, परंतु परिणामों का विपरीत परिणमन अनंत पर्यायों को नष्ट करेगां इसलिए हुण्डावसर्पिणीकाल कहकर आप स्वेच्छाचारी मत बन जानां इस काल में जो होना था, सब आगम में आ चुका हैं . Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com

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