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प्रवचनसार अनुशीलन गाथाओं और उनकी टीकाओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
आचार्य अमृतचन्द्र स्वयं इस बात पर विशेष बल दे रहे हैं कि जीवपुद्गलात्मक असमानजातीयद्रव्यपर्याय ही सकल अविद्याओं का मूल है। तात्पर्य यह है कि श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र में जो कुछ भी विकृति हुई है,
अविद्यारूप परिणमन हुआ है; उन सबका मूल असमानजातीयद्रव्यपर्याय में एकत्वबुद्धि है, ममत्वबुद्धि है।
यद्यपि यह सत्य है कि गुरुदेवश्री ने गुणपर्यायों पर अधिक वजन दिया था। उनका उन पर वजन देना उचित भी था; क्योंकि उनकी तरफ जगत का ध्यान ही नहीं गया था। वे मात्र असमानजातीयद्रव्यपर्याय के सन्दर्भ में ही सोचते थे। इसलिए वह उस समय की अनिवार्य आवश्यकता थी; परन्तु अब उस पर आवश्यकता से अधिक ध्यान चला गया है; अतः इस पर पुन: ध्यान लाना जरूरी है।
गुरुदेवश्री ने प्रथम विवक्षा पर वजन दिया है और मैं इस दूसरी विवक्षा पर वजन दे रहा हूँ। इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है।
केवलज्ञान भी पर्याय है एवं इसमें एकत्वबुद्धि मिथ्यात्व है - यह बात बड़े-बड़े विद्वानों के ख्याल में नहीं थी। सम्यग्दर्शन भी पर्याय है, उसमें एकत्वबुद्धि मिथ्यात्व है - यह भी किसी के ख्याल में नहीं था। ध्यान दिलाने पर भी लोग इस विवक्षा को नहीं समझते थे।
गुरुदेवश्री के पुण्यप्रताप से अब यह अवस्था हो गई है कि सब उसी को मानने लग गए हैं एवं जो सकल अविद्याओं की मूल है - ऐसी जो असमानजातीयद्रव्यपर्याय है, उस द्रव्यपर्याय में एकत्वबुद्धि को आज स्थूल बात कहने लगे हैं। स्वयं को बड़ा पण्डित माननेवाले कुछ लोग उसकी चर्चा करने में भी शर्म महसूस करते हैं; क्योंकि उनकी दृष्टि में यह स्थूल कथन है।
क्या अमृतचन्द्राचार्य छोटे पण्डित थे? क्या प्रवचनसार स्थूल बातों का प्रतिपादन करनेवाला ग्रन्थ है ? अरे भाई! इसी महाग्रन्थ की टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने यह लिखा है कि 'जो जीव मनुष्यादिक असमान
गाथा-९४ जातीयद्रव्यपर्यायों में एकत्वबुद्धिधारण करते हैं, वे आत्मा का अनुभव करने में नपुंसक है।' ____ आचार्य कहते हैं कि ऐसा जो मनुष्यव्यवहार है, उसका आश्रय करके यह जीव रागी-द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ युक्त होकर वास्तव में परसमय होता हुआ परसमयरूप ही परिणमित होता है।
इससे हम यह समझ सकते हैं कि उस मनुष्यव्यवहार में एकत्वबुद्धि ही मिथ्यात्व है। मैं सम्यग्दर्शन हूँ, मैं केवलज्ञान हूँ।' - यह मनुष्यव्यवहार नहीं है। इस कथन से आशय मात्र इतना ही है कि यहाँ अमृतचन्द्राचार्यदेव ने स्वयं पूरा वजन असमानजातीयद्रव्यपर्याय पर ही दिया है।
स्वसमय और परसमय का तुलनात्मक विवेचन समयसार की आत्मख्याति टीका, प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका और पंचास्तिकाय की समयव्याख्या टीका के आधार पर समयसार अनुशीलन भाग१ में इसप्रकार किया गया है - ___ "समयसार की दूसरी गाथा में दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थित जीव को स्वसमय कहा गया है और प्रवचनसार में आत्मस्वभाव में स्थित जीव को स्वसमय कहा गया है। इसीप्रकार समयसार में पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित जीव को परसमय कहा गया है और प्रवचनसार में पर्यायों में निरत आत्मा को परसमय कहा गया है।
उक्त दोनों कथनों में कोई अन्तर नहीं है, मात्र अपेक्षा भेद है। आत्मस्वभाव में स्थित होने का नाम ही दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित होना है। श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र गुण की पर्यायें जब आत्मस्वभाव के सन्मुख होकर परिणमित होती हैं, तब सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट होते हैं; उसी को आत्मस्वभाव में स्थित होना कहते हैं और उसी को दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित होना कहते हैं।
समयसार की आत्मख्याति टीका में पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित होने का अर्थ मोह-राग-द्वेषादि भावों में एकत्व स्थापित कर परिणमन करना किया है और प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में पर्यायों में