Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1 Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai View full book textPage 9
________________ कलश-२ तीसरे छन्दों में इतना अन्तर अवश्य है कि आत्मख्याति स्वयं की परमविशुद्धि के लिए लिखी गई थी और तत्त्वप्रदीपिका परमानन्द के पिपासु भव्यजनों के हित के लिए। अनेकान्त को स्मरण करनेवाला मंगलाचरण का दूसरा छन्द इसप्रकार प्रवचनसार अनुशीलन इसी बात को और भी अधिक स्पष्ट करें तो कह सकते हैं कि - आत्मख्याति में स्वानुभूत्या चकासते कहकर और यहाँ तत्त्वप्रदीपिका में स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय कहकर एक ही बात कही गई है कि वह ज्ञानानन्दस्वभावी समयसाररूप भगवान आत्मा स्वानुभूति में प्राप्त होनेवाला तत्त्व है। स्वयं मैंने भी अपने 'मैं ज्ञानानन्दस्वभावी हूँ' गीत में 'आत्मानुभूति से प्राप्त तत्त्व मैं ज्ञानानन्दस्वभावी हूँ' लिखा है। इसीप्रकार आत्मख्याति में सर्वभावान्तरच्छिदे कहकर और यहाँ तत्त्वप्रदीपिका टीका में सर्वव्यापी कहकर भगवान आत्मा को सर्वपदार्थों को जानने के स्वभाववाला अर्थात् सर्वज्ञस्वभावी कहा है। इसीप्रकार आत्मख्याति में चित्स्वभावाय और यहाँ चिद्रूपस्वरूपाय कहकर एक ही बात कही गई है। वहाँ समयसार पद से और यहाँ परात्मा पद से दृष्टि के विषयभूत त्रिकालीध्रुव आत्मा को ही इंगित किया गया है। मंगलाचरण के इस प्रथम छन्द में अनेक उल्लेखनीय बातें हैं; जिनकी चर्चा समयसार अनुशीलन में मंगलाचरण के प्रथम छन्द के अनुशीलन में विस्तार से की गई है; अत: यहाँ लिखकर पिष्टपेषण करना उचित प्रतीत नहीं होता । जिज्ञासु पाठक समयसार अनुशीलन से अपनी जिज्ञासा शान्त कर सकते हैं। ___ इसप्रकार हम देखते हैं कि समयसार की आत्मख्याति टीका के मंगलाचरण के प्रथम छन्द और प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका के मंगलाचरण के प्रथम छन्द में एक अद्भुत समानता है। दोनों में एक ही आत्मा को लगभग एक से ही विशेषणों से याद किया गया है। यह अद्भुत समानता मंगलाचरण के प्रथम छन्द तक ही सीमित नहीं है; शेष दो छन्दों में भी वही समानता दृष्टिगोचर होती है। दोनों के ही दूसरे छन्दों में अनेकान्त को स्मरण किया गया है और तीसरे छन्दों में टीका करने की प्रतिज्ञा की गई है। ( अनुष्टुप) हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं जयत्यदः। प्रकाशयज्जगत्तत्त्वमनेकान्तमयं महः ।।२।। (दोहा) महामोहतम को करे क्रीड़ा में निस्तेज । सब जग आलोकित करे अनेकान्तमय तेज ।।२।। जो महामोहरूपी अंधकारसमूह को लीलामात्र में नष्ट करता है और जगत के स्वरूप को प्रकाशित करता है; वह अनेकान्तमय तेज सदा जयवंत वर्तता है। जगत की प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक होने से अनेकान्तस्वरूप है। वस्तु के अनेकान्तस्वरूप को प्रकाशित करनेवाले ज्ञान और वाणी भी अनेकान्तरूप ही होते हैं। इसप्रकार अनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूप को जाननेवाला प्रमाणनयात्मक सम्यग्ज्ञानरूप प्रकाश महामोहान्धकार का नाश करनेवाला है तथा एकान्तपक्ष के कथनरूप अंधकार का स्याद्वादमयी सापेक्षवाणी नाश करती है। एकान्तपक्ष को ग्रहण करनेवाला ग्रहीत-अग्रहीत मिथ्यात्व ही महामोहान्धकार है। उस अन्धकार को अनेकान्तमयी सम्यग्ज्ञान और स्याद्वादमयी वाणी ही दूर कर सकती है, करती है। अनेकान्तस्वरूप का प्रतिपादन करनेवाली स्याद्वादमयी वाणी में ही वह शक्ति है कि वह तत्त्वसंबंधी अज्ञानान्धकार को खेल-खेल में ही नष्ट कर देती है।Page Navigation
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