Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

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Page 7
________________ कलश-१ प्रवचनसार अनुशीलन अन्य उपलब्ध साहित्य का उपयोग भी विषयवस्तु के स्पष्टीकरण की आवश्यकतानुसार यथास्थान बिना संकोच के किया जायेगा। समयसार अनुशीलन के निर्विघ्न पूर्ण हो जाने के उपरान्त उसके अनुशीलन से प्राप्त अभूतपूर्व आध्यात्मिक लाभ और अद्भुत आनन्द के कारण ही प्रवचनसार का अनुशीलन करने का प्रयास आरंभ किया जा रहा है। यद्यपि समयसार के अनुशीलन करते समय भी उसके उपरान्त प्रवचनसार के अनुशीलन करने का विकल्प निरन्तर चलता रहा है और आत्मार्थी बन्धुओं से भी इस उपक्रम के लिए सतत् प्रेरणा मिलती रही है; तथापि संयोगों की क्षणभंगुरता ध्यान में आते ही तत्संबंधी विकल्प तरंगे विलीन हो जाती थीं; किन्तु आज इस उपक्रम को आरंभ होता देखकर चित्त आह्लादित है। आशा ही नहीं, पूर्व विश्वास है कि समयसार अनुशीलन के समान ही यह प्रयास भी मुझे तो लाभप्रद होगा ही, अन्य साधर्मी आत्मार्थी बन्धुओं को भी उपयोगी सिद्ध होगा। प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका का मंगलाचरण इसप्रकार है - (अनुष्टुप) सर्वव्याप्येकचिद्रूपस्वरूपाय परात्मने। स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नमः ।।१।। (दोहा) स्वानुभूति से जो प्रगट सर्वव्यापि चिद्रूप। ज्ञान और आनन्दमय नमो परात्मस्वरूप ।।१।। सर्वव्यापी होने पर भी मात्र एक चैतन्यरूप है स्वरूप जिसका और जो स्वानुभव से प्रसिद्ध होनेवाला है; उस ज्ञानानन्दस्वभावी उत्कृष्ट आत्मा को नमस्कार हो। मंगलाचरण के उक्त छन्द में ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा को नमस्कार किया गया है। यहाँ जिसे नमस्कार किया जा रहा है, उस आत्मा को परमात्मा न कहकर परात्मा कहा गया है। परमात्मा कहने से अरहंतसिद्धपर्यायरूप से परिणमित आत्मा अर्थात् कार्यपरमात्मा पकड़ में आता है; किन्तु यहाँ अरहंत-सिद्धरूपकार्यपरमात्मा को नमस्कार न करके पर अर्थात् उत्कृष्ट आत्मा त्रिकालीध्रुव कारणपरमात्मा को नमस्कार किया गया है। ज्ञानानन्दस्वभावी कहकर उक्त कारणपरमात्मा को परिभाषित किया गया है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान और आनन्द है स्वभाव जिसका - ऐसा दृष्टि का विषयभूत त्रिकाली ध्रुव आत्मा ही कारणपरमात्मा है और उसे ही यहाँ नमस्कार किया गया है। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि आत्मा का स्वभाव तो ज्ञाता-दृष्टा कहा जाता है; क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग माना गया है और उपयोग ज्ञानदर्शनरूप होता है। यही कारण है कि ज्ञाता-दृष्टा आतम राम' कहा जाता है; पर यहाँ आत्मा को ज्ञानानन्दात्मक क्यों कहा गया है ? अरे भाई ! जिसप्रकार ज्ञान और दर्शन आत्मा का स्वभाव है; उसीप्रकार ज्ञान और आनन्द भी आत्मा का स्वभाव ही है। जब दार्शनिक या सैद्धान्तिक चर्चा होती है तो ज्ञान-दर्शनस्वभाव को मुख्य रखा जाता है और जब आध्यात्मिक चर्चा होती है तो ज्ञानानन्दस्वभाव प्रमुख हो जाता है। ज्ञान-दर्शन तो चैतन्य के ही रूप हैं; अत: ज्ञान कहने से दर्शन भी आ ही जाता है और आनन्द की प्राप्ति ही तो हमारे आध्यात्मिक जीवन का एकमात्र उद्देश्य है; इसलिए यहाँ ज्ञान के साथ आनन्द का उल्लेख करना उचित ही है। दूसरे इस प्रवचनसार ग्रन्थ के प्रथम महाधिकार ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन

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