Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1 Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai View full book textPage 5
________________ पृष्ठभूमि जिनेन्द्र भगवान के प्रवचनों (दिव्यध्वनि) का सार यह कालजयी प्रवचनसार आचार्य कुन्दकुन्द की सर्वाधिक प्रचलित अद्भुत सशक्त संरचना है। समस्त जगत को ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व के रूप में प्रस्तुत करनेवाली यह अमर कृति विगत दो हजार वर्षों से निरन्तर पठन-पाठन में रही है। आज भी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में इसे स्थान प्राप्त है । यद्यपि आचार्यों में कुन्दकुन्द और उनकी कृतियों में समयसार सर्वोपरि है; तथापि समयसार अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक विषयवस्तु के कारण विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में स्थान प्राप्त नहीं कर सका; पर अपनी विशिष्ट शैली में वस्तुस्वरूप के प्रतिपादक प्रवचनसार का प्रवेश सर्वत्र अबाध है। प्रमाण और प्रमेय व्यवस्था का प्रतिपादक यह ग्रन्थराज आचार्य कुन्दकुन्द की ऐसी प्रौढ़तम कृति है कि जिसमें वे आध्यात्मिक संत के साथ-साथ गुरु-गंभीर दार्शनिक के रूप में प्रस्फुटित हुए हैं, प्रतिष्ठित हुए हैं। आचार्य जयसेन के अनुसार यदि पंचास्तिकाय की रचना संक्षेप रुचि वाले शिष्यों के लिए हुई थी, तो इस ग्रन्थराज प्रवचनसार की रचना मध्यम रुचिवाले शिष्यों के लिए हुई है।' यद्यपि इस ग्रन्थराज पर अद्यावधि विभिन्न भाषाओं में अनेक टीकायें लिखी गई हैं; तथापि इस ग्रन्थराज की रचना के लगभग एक हजार वर्ष बाद और आज से लगभग एक हजार वर्ष पहले आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका और उसके लगभग तीन सौ वर्ष बाद आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति संस्कृत भाषा में लिखी गईं ऐसी टीकायें हैं कि जो आज सर्वाधिक प्रचलित हैं, पठन-पाठन में हैं। १. (क) प्रवचनसार : तात्पर्यवृत्ति, पृष्ठ- १ (ख) पंचास्तिकाय: तात्पर्यवृत्ति, पृष्ठ २ पृष्ठभूमि ३ तत्त्वप्रदीपिका एक प्रांजल भाषा में लिखी गई प्रौढ़तम कृति है और तात्पर्यवृत्ति सरल भाषा और सुबोध शैली में लिखी गई खण्डान्वयी टीका है। इस ग्रंथराज की विषयवस्तु को तीन महाधिकारों में विभाजित किया गया है । जहाँ एक ओर 'तत्त्वप्रदीपिका' टीका में आचार्य अमृतचन्द्र उक्त तीन महाधिकारों को ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन, ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन और चरणानुयोगसूचक चूलिका नाम से अभिहित करते हैं; वहीं दूसरी ओर 'तात्पर्यवृत्ति' टीका में आचार्य जयसेन सम्यग्ज्ञानाधिकार, सम्यग्दर्शनाधिकार और सम्यक् चारित्राधिकार कहते हैं। प्रश्न- अधिकारों के नामकरण में आचार्यों में इसप्रकार के मतभेद क्यों हैं ? उत्तर - ये मतभेद नहीं हैं; क्योंकि मतभेद तो तब हो, जब विषयवस्तु के प्रतिपादन में विभिन्नता हो। वह तो है नहीं, इसलिए मतभेद का तो सवाल ही नहीं उठता । बात यह है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने तो अधिकारों का विभाजन किया नहीं; वे तो समग्ररूप से वस्तु का प्रतिपादन करते गये। टीकाकारों पाठकों की सुविधा के लिए वर्गीकरण किए हैं। आचार्य अमृतचन्द्र तो प्रथम टीकाकार हैं; अतः उनका किसी से मतभेद था; इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है और आचार्य जयसेन ने अमृतचन्द्र के वर्गीकरण को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हुए अपना वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। अतः मतभेद की बात ही नहीं है। हमें दोनों टीकाओं का भरपूर लाभ लेना है; अतः इसप्रकार विकल्पों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। मेरी दृष्टि में प्रवचनसार की विषयवस्तु को देव-शास्त्र-गुरु के रूप में भी विभाजित किया जा सकता है। ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन या सम्यग्ज्ञान महाधिकार में मुख्यरूप से देव के स्वरूप पर ही विचार किया गया है।Page Navigation
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