Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 6
________________ ( १० ) श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भिन्न-भिन्न विषयों पर अनेकों ग्रन्थों की रचना की थी, उनमें से एक प्रवचनसार भी है । इसमें तीन अधिकार हैं (१) ज्ञानाधिकार, (२) दर्शनाधिकार अथवा शेयाधिकार, (३) चारित्राधिकार। इनमें से प्रथम अधिकार में १०१ गाथा हैं । धीमत् जयसेन तथा श्री प्रभाचन्द्र आचार्य ने तो १०१ गाथाओं पर टीका रची है किन्तु श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने इनमें से मात्र ६२ गाथाओं पर टीका रची है। जिस प्रकार श्री गौतमगणधर ने व्यवहारनय का आश्रय लेकर चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में मंगल किया है, उसी प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी व्यवहारनय का आश्रय लेकर प्रथम पांच गाथाओं द्वारा प्रवचनसार के आदि में मंगल किया है। यदि कहा जाय कि व्यवहारनय असत्य है तो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है। अत: जो व्यवहारनय बहुत जीवों का अनुग्रह करने वाला है, उसी का आश्रय करना चाहिये । ऐसा मन में निश्चय करके श्री गौतम स्थविर ने चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में मंगल किया है। धो गोतमगणधर का अनुसरण करते हुए श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी मंगल किया है। गाथा ६ में बतलाया हैं कि सम्यक्-चारित्र के फ र स्वरूप स्वादि के वैभव के साथ-साथ मोक्ष भी मिलता है । गाथा ७ में बारित्र को धर्म बतलाते हुए स्वरूपाचरण का लक्षण बतलाया है। गाथा ८व में बतलाया है कि द्रव्य जिस समय जिस पर्याय से परिणत होता है उस समय उस पर्याय से तन्मय हो जाता है। इसलिये जिस समय आत्मा शुभभाव से परिणत होता है उस समय आत्मा शुभ है। जिस समय आत्मा अशुभभाव या शुद्ध भाव से परिणत होता है उस समय आत्मा अशुभ या शुद्ध है । गाथा १० में बतलाया कि परिणाम के बिना द्रव्य नहीं और द्रव्य के बिना परिणाम नहीं है। गाथा ११-१३ तीनों उपयोग के फल का कथन है। गाथा १४ में शुद्धोपयोग का लक्षण । इस प्रकार इन. १४ गाथाओं में पीठका समाप्त हुई। माथा १५-२० सवा द्वि, गाथा २१ से ५२ तक ज्ञान का सविस्तार कथन है। गाथा ४५ में बतलाया है कि अरहंत पद पुण्य का फल है जिससे पुण्य की सर्थकता सिद्ध होती है। गाथा ५२-६८ सुख का सविस्तार कथन करते हुए बतलाया है कि ज्ञान के साथ सुख का अबिनाभावी सम्बद्ध है इसलिये इन्द्रिय जनित ज्ञानी के इन्द्रिय जनित सुख होता और अतीन्द्रियज्ञानी अर्थात् केवली के ही अतीन्द्रियसुख होता है। इन्द्रियज्ञान इन्द्रियसुख का कारण होने से हेय है उसी प्रकार गुभोपयोग भी इन्द्रियसुख का कारण होने से हेय है। उस शुभोपयोग का कथन गाथा ६६ से ७६ तक है। गाथा ८०-६२ में मोह को जीतने का उपाय बतलाया है किन्तु गाथा ८३-८५ में राग द्वेष मोह का कथन है। (१) "व्यवहारणयं पञ्च पुण गोदम सामिणा नदुनीसहमणि योगदाराणमादीए मंगल कदं ।' (२) "ण व ववहारणओ चप्पलओ, तत्तो सिसाण पउत्ति दसणादो जो बहुजीवाणुगहकारी बबहारणी सो चैब समाश्मिसम्मोति मणेणावहारिय गोदमधरेण मंगल तत्थ कयं ।' (जयधवल पु. १ पृ.)

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