Book Title: Pratibodh
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक बुढिया शहर से अपने गाँवकी ओर जा रही थी । चलते-चलते शाम होने लगी । तभी सामने से आनेवाले एक मुसाफिर ने उससे कहामाताजी ! लौट चलिये । आगे घोर जंगल है । दिन अस्त होने पर जंगल में रात का राजा आपको मार डालेगा ।" बुढिया तो उस मुसाफिर के साथ पास के एक अन्य गाँव में चली गई; परन्तु मुसाफिर की कही हुई बात वहीं पास की झाड़ी में छिपा हुआ एक सिंह सुन रहा था । वह सोचने लगा कि जंगल का राजा तो में ही हूँ, पर यह “रात का राजा” कौन है ? पता नहीं, वह कसा है- कितना बलवान् है । कुछ ही समय बाद अपने खोये हुए एक गधे को ढूंढता हुआ कोई कुम्भकार वहाँ आ पहुँचा । अंधेर के कारण सिंह को गधा समझकर उसने उसकी पीठपर लाठी का एक प्रहार किया । सिंह ने समझा कि यही है रातका राजा ! अन्यथा मुझपर प्रहार करने का साहस कौन कर सकता है ? फिर कुम्भकार सिंह को घसीटकर अपने घर के बाडे में ले गया और उसे अपने अन्य गधों के साथ खूटे से बाँध दिया । प्रात:काल कम्भकार की पत्नी ने जब सिंह को देखा तो उसक मुंह से चीख निकल गई । चीख से जागकर कुम्भकार भी वहाँ आया और गधों क टोले में सिंह को दरखकर थर थर काँपने लगा । सिंह को समझमें आ गया कि जंगल का राजा भी में ही हूँ और रातका राजा भी । बन्धन तडाकर वह पन: जंगल में चला गया । स्वतन्त्र हो गया । हमारी आत्मा भी गधों के टोले मे बँधे हुए सिंह के समान है उसमें प्रभु महावीर की तरह ही अनन्त ज्ञान-दर्शन पाने की शक्ति है; परन्तु हम संसारी जीवों के साथ अनादिकाल से रहने के कारण अपने स्वरूप को नहीं पहिचानते । यही दु:ख का प्रमुख कारण है । आत्मा की पहिचान से भ्रम का परदा हट जाता है । मनुष्य भव साधना के लिए मिला है- लोक और परलोक सधारने क लिए मिला है, बिगाडने के लिए नहीं । अहंकार और ममता के कारण पाप करते समय प्राणी यह भूल जाता है कि में अंकला आया था अंकला ही जानेवाला हूँ : धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भार्या गृहद्वारि जन: श्मशाने । For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122