Book Title: Pratibodh
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरू-शिष्य 'गु' शब्दस्त्वन्धकारः स्याद् 'ह' शब्दस्तन्निरोधकः अन्धकार निरोधित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते ॥ ('गु' का अर्थ है - अन्धकार और 'रू' का अर्थ है - निवारक। अज्ञानरूपी अन्धकार का निवारक होने से ही किसी व्यक्ति को गुरू' कहा जाता है) ___ अन्धा क्या चाहे ? दो ऑरखें । यदि कोई किसी अन्धे को आँखे दे दे तो वह जीवन-भर उसक प्रति कृतज्ञ बना रहेगा । गुरू भी शिष्यों के विवेक चक्षु खोलने का काम करता हैं; इसलिए वन्दनीय है : अज्ञान-तिमिरान्धानाम् ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।। (अज्ञानरूपी अन्धकार से जो अन्धे हैं. उनकी चक्षु को ज्ञानरूपी अंजनशलाका से खोलने वाले गुरू को हम नमस्कार करते हैं) गुरु में ज्ञान तो भरपूर होना ही चाहिये, साथ ही उसका आचरण भी पवित्रा होना चाहिये । वाणी के अनुसार उसका व्यवहार भी होना चाहिये; अन्यथा शास्ाकारों के अनुसार वह सच्चा गुरू नहीं हो सकता। वह धुआँधार प्रवचन कर के भले ही गुरुत्व का सन्तोष प्राप्त कर ले; परन्तु आचरण को अपनाये बिना वह वास्तविक गुरू पद नहीं पा सकता । भणता अकरिता य बन्धमोक्खपइण्णिणो । वायाविरियमेत्तेणं समासासन्ति अप्पयं ।। [बन्ध और मोक्ष की प्ररूपणा करने वाले जो लोग कहते हैं, परन्न वैसा स्वयं करते नहीं हैं, वे बोलने की शक्ति मात्र से अपने आप का सन्तुष्ट रखते हैं ] For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122