________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उपाध्याय यशाविजयजी ने लिखा है :---
भय से मुक्त होना हो तो ईन्द्रियों पर विजय प्राप्त करो"
लोकमान्य तिलक का कथन है :
"भय और जय परस्पर विरोधी है।
यदि जय पाना चाहते हो तो निर्भय बनो" रोत हए बञ्च का चप रखने के लिए कल्पित “हौवे" का डर दिखात है; जो अनचित है । इससे बच्चे डरपोक और कायर बन जाते है ।
शक्ररतव में "अभयदयाणं" पद से जिनदेव की स्तुति की गई है । वे जीवां का अभयदान करते हैं, स्वयं निर्भय रहते हैं और दूसरों को निर्भय बनाते हैं ।
भर हमार मन में होता है. जगत् में नहीं । जब तक अज्ञान है. तब हमार मन में होता है । अधर में सड़क पर पड़ी रस्सी को कोई साँप समझ ल तो वह कांप उठेंगा; किन्तु रस्सी का ज्ञान होने पर भय भी मिट जायगा ।
जिस क पास बहत सम्पत्ति है-उच्च सत्ता हे-अभिमान है, उसे चौकीदार रखने पड़ते हैं । किचन सदा निर्भय रहता है ।
जिसमें वीरता है, वह निर्भय ही रहेगा । जिस वनमें चण्डकौशिक रहता था, उसमें न जाने का अनुरोध महावीर स्वामी से किया जाता है; परन्तु निर्भयता पूर्वक वे वहाँ जाते हैं और प्रचण्ड चण्ड कौशिक को शान्त बना देते हैं । अंगारा रुई को भले ही जला दे, परन्तु पानी में डाल दिया जाय तो वह स्वयं ही बझ जाता है । इसलिए नीतिकार राजस्थानी कवि कहता है -
“आगलो जो आग होवे
थू होजे पाणी !" (यदि सामने वाला व्यक्ति कद्ध हो - आग हो तो तूं शीतल जल की तरह शान्त बन जाना)
जो दूसरों को मारता है, उसे मार खानी पड़ती है; किन्तु दूसरों को तारता । उसकी लोग सवा करते हैं । पद सेवा के लिए होता, अभिमान क लिए नहीं । पद पर रहकर जो उपकार नहीं करता. उस क विषय में एक सरका कवि कहता है :
७७ .
For Private And Personal Use Only