Book Title: Pratibodh
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 88
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धीरे-धीरे रे मना ! धीरे सब कुछ होय । माली सीचे सौ घडा रितु आये फल होय ।। “हे प्रभा ! आपक ही समान मुझ पूर्ण वीतराग बनना है ।" ऐसी सुदृढ भावना को सम्बल बना कर साधक आगे बढ़ता रहता है । कहा है : घघभावना भवनाशिनी ।।" (भावना भव-भ्रमण को नष्ट करती है) पवमव में शालिभद का जीव एक गरीब माता का पुत्रा था । उसकी हट पर करने के लिए इधर-उधर से माँग कर लाई गई सामग्री से माता न पत्र के लिए खीर बनाई । थाली में खीर परोसकर माता पानी भरने • चली गई । बालक में भावना जगती है कि यदि कोई साध आ जाय तो आहारवान करंक खाऊ । संयोग से साधु का शुभागमन होता है । वह संपर्ण ग्वीर का दान सहर्ष कर देता है । फलस्वरूप अगले शालिभद्र क भब म उस अरबूट सम्पदा प्राप्त होती है । त्याग की भावना बनी रहती सतत संपर्ष ही जीवन है - Lic of man is the field of battle - (मनवजीवन एक रण क्षेत्र है) युक्ष की तरह इसम जीत-हार होती रहती है । सञ्चा खिलाडी न जीत में फूलना है और न हार में राता है । विवेकी व्यक्ति सुख और द:ख में मानसिक सन्तुलन बनाये रखता है । प्रा महाबीर ने उत्तराभ्ययन सूत्र की तेईसवें अध्ययन की इकतीसवी गाथा म कहा है : “विन्नाणेण समागम्म धम्पसाहणमिच्छिउ ।।" (धम क साधनों का विज्ञान से समन्वय होना चाहिय) धर्म क बिना विज्ञान शेतान बना देता है और विज्ञान के बिना धर्म हैवान । इन्सान बनने के लिए दाना की आवश्यकता है । ८७ For Private And Personal Use Only

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