Book Title: Pratibodh
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 98
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. का अमृत । अमृत विष को शान्त कर देता है। महावीर के मुखारविन्द से उपदेश के मकरन्दबिन्दु झरते हैं । : संबूज्झह किं न बुज्झह सबोही खलु पेच दुल्लहा !" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( हे चण्डकौशिक ! समझ, तू भला समझता क्यों नहीं ? मरने के बाद यह समझ तेरे लिए दुर्लभ होगी ।) वह समझ जाता है- क्रोध का त्याग कर देता है। उसका आतंक समाप्त हो जाता है । उसके प्रति लोगों का दृष्टिकोण भी बदल जाता है । प्रभु ने उत्तराध्ययन सूत्र में दृष्टि के दो प्रकार बताये हैं और मांगलिक । अमांगलिक पहली दृष्टि से सुख में भी दुःख दिखाई देता है और दूसरी से दुःख में भी सुख । पीलिया के रोगी को जिस प्रकार सभी वस्तुएँ पीली नजर आती हैं, वैसे ही अमांगलिक दृष्टि वाले को सर्वत्र प्रतिकूलताएँ ही दिखाई देती हैं । भौतिक सामग्री की प्रचुरता जिनके पास होती है, उनसे यदि हम अपनी तुलना करके ईष्या की आग में जलते रहें तो यह मजह एक मूर्खता होगी; क्योंकि जिसे हम सुखी समझते हैं. वह भी अपनी वर्तमान सम्पत्ति से असन्तु है । वह भी अपने से बड़े धनवान् की बराबरी करने के लिए दिनरात दौड धुप करता रहता है । महात्मा शेखसादी के जूते फट गये । बिना जूतों के उन्हें चलने-फिरने में तकलीफ होने लगी। खुदा से जूतों की एक जोड़ी माँगने के लिए वे मस्जिद की ओर लपके । मस्जिद के द्वारा पर एक ऐसे आदमी को बैठे हुए उन्होंने देखा जिसकी दोनों टाँग नहीं थीं तो वे उल्टे पाँव लौट आये और खुदा को इस बात के लिए शुक्रिया अदा करने लगे कि उनकी दोनों टाँगे तो कमसे कम सही-सलामत हैं । इस प्रकार उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन होते ही वे सुखी हो गये । कुत्तों ने भौंक-भौंक कर नींद हराम कर दी तो मकान मालिक सुबह उठ कर खूब बक-बक करता रहा; किन्तु पडोसियों के कहने से जब उसे पता चला कि कुत्तों के भौकने से चोर भाग गये थे, तब उसकी नाराजी खुशी में बदल गई ! ऐसे सैंकड़ो उदाहरण हमारे आसपास मिल सकते हैं, जब दृष्टिकोण बदल ने पर अनुभूति बदल जाती है; इसलिए अपनी दृष्टि को सदा अनुकूल बनाये रखना चाहिये जिससे अशान्ति मन में प्रवेश न कर सके । For Private And Personal Use Only ९७

Loading...

Page Navigation
1 ... 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122