Book Title: Pratibodh
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 77
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निर्भय बनें जो पढी कवल नौकरों क द्वारा चलाई जाती है, वह बर्बाद हो जाती है; किन्तु किसी एक मालिक की सत्ता में चलाई जाय तो आबाद हो जाती है । इन्द्रियों पर भी यदि विवेकशील मन की सत्ता रहे तो सार । कार्य व्यवस्थित चल सकता है । रंगीन आइस्क्रीम आँख, नाक और जीभ को आकर्षित भले ही करती रहे; परन्तु गले क टांसिल्स से डरने वाला मन उस स्वीकार करने से इन्कार कर दता है । इन्द्रियों को अपनी और करने वाली हजारों वस्तएँ दनिया में भारी पड़ी हैं । उन्हें पान के लिए मनुष्य कठोर परिश्रम करता है । जो वरत प्राप्त हो जाती है, उसका सुख समाप्त हो जाता है । फिर कोई नई वरन पान का प्रयास किया जाता है । यह चक्र चलता ही रहता है. और जीव इस चक्र में फंसा रहता है । - भक्ति और ज्ञान से विशद्ध मन उस चक्र से जीत्र को बाहर निकाल सकता है । वह इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोक सकता है । सकवि पंडित श्री सूरजचन्द्री सत्य प्रेमी ने अपनी एक भाव- पूर्ण कविता में लिखा है : इन्द्रियों के न घोड़े विषय में अड़े जो अड़े भी तो संयम के कोड़े पड़े ।। तन के रथ को सुपथ पर चलाते चलें सिद्ध अर्हन्त में मन रमाते चलें ।। मन को सिद्ध और अरिहन्त दव में रमाने की जरूरत है । जवान स्त्री के शव को दरखकर एक कामक यवकने कामना की पर्ति का विचार किया । एक चोर न उसंक शरीर पर पहिन हए सान. चाँदी के गहनों को लूटने का विचार किया । एक सियार ने उसका मास खान का विचार किया; परन्तु एक ज्ञानी भक्त ने शरीर की नशवरता का विचार किया और उसका वैराग्य सुदृढ हो गया । लोग स्वाद के लिए खाते है, किन्तु ज्ञानी क्षधावंदनीय रोग के उपशमन के लिए औषध के समान अनासक्त भावसे आहार ग्रहण करते हैं । मोक्ष के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए शरीर को टिकाये रखना जरूरी है; किन्तु भय शरीर को सखा देता है । ७६ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122