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एक बुढिया शहर से अपने गाँवकी ओर जा रही थी । चलते-चलते शाम होने लगी । तभी सामने से आनेवाले एक मुसाफिर ने उससे कहामाताजी ! लौट चलिये । आगे घोर जंगल है । दिन अस्त होने पर जंगल में रात का राजा आपको मार डालेगा ।"
बुढिया तो उस मुसाफिर के साथ पास के एक अन्य गाँव में चली गई; परन्तु मुसाफिर की कही हुई बात वहीं पास की झाड़ी में छिपा हुआ एक सिंह सुन रहा था । वह सोचने लगा कि जंगल का राजा तो में ही हूँ, पर यह “रात का राजा” कौन है ? पता नहीं, वह कसा है- कितना बलवान् है ।
कुछ ही समय बाद अपने खोये हुए एक गधे को ढूंढता हुआ कोई कुम्भकार वहाँ आ पहुँचा । अंधेर के कारण सिंह को गधा समझकर उसने उसकी पीठपर लाठी का एक प्रहार किया । सिंह ने समझा कि यही है रातका राजा ! अन्यथा मुझपर प्रहार करने का साहस कौन कर सकता
है ?
फिर कुम्भकार सिंह को घसीटकर अपने घर के बाडे में ले गया और उसे अपने अन्य गधों के साथ खूटे से बाँध दिया । प्रात:काल कम्भकार की पत्नी ने जब सिंह को देखा तो उसक मुंह से चीख निकल गई । चीख से जागकर कुम्भकार भी वहाँ आया और गधों क टोले में सिंह को दरखकर थर थर काँपने लगा ।
सिंह को समझमें आ गया कि जंगल का राजा भी में ही हूँ और रातका राजा भी । बन्धन तडाकर वह पन: जंगल में चला गया । स्वतन्त्र हो गया ।
हमारी आत्मा भी गधों के टोले मे बँधे हुए सिंह के समान है उसमें प्रभु महावीर की तरह ही अनन्त ज्ञान-दर्शन पाने की शक्ति है; परन्तु हम संसारी जीवों के साथ अनादिकाल से रहने के कारण अपने स्वरूप को नहीं पहिचानते । यही दु:ख का प्रमुख कारण है ।
आत्मा की पहिचान से भ्रम का परदा हट जाता है ।
मनुष्य भव साधना के लिए मिला है- लोक और परलोक सधारने क लिए मिला है, बिगाडने के लिए नहीं । अहंकार और ममता के कारण पाप करते समय प्राणी यह भूल जाता है कि में अंकला आया था अंकला ही जानेवाला हूँ :
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भार्या गृहद्वारि जन: श्मशाने ।
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