Book Title: Prakritshabdanushasanam
Author(s): Trivikram
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 8
________________ प्रधान संपादकीय दक्षिण भारतमें प्राकृत-व्याकरणोंके अध्ययनका एक नया युग त्रिविक्रमका प्राकृतभ्याकरण सूचित करता है । इस व्याकरणपर सिंहराज, लक्ष्मीधर तथा अप्पय्य दीक्षित जैसे पंडितोंने टीकाएँ लिखी हैं। इस व्याकरणका चिकित्सापूर्ण संपादन डॉ. पी. एल्. वैद्यजीने किया है। आप भारतमें गत चालीस बरसोंसे अधिक समय प्राकृत अध्ययनके अग्रणी रहे हैं। आप प्राकृत और अपभ्रंश रचनाओंके संपादन कार्यके सचमुच पथिकृत हैं । खिस्ताब्द १९५४ में, इस ग्रंथमालामें जब डॉ. वैद्यजीद्वारा संपादित त्रिविक्रमके व्याकरणका संस्करण प्रकाशित हुआ, तब स्व. ब्रह्मचारी गौतमजीने कामना प्रदार्शत की थी कि इसका हिंदीमेंभी अनुवाद प्रकाशित हो। इस संबंध प्रधान संपादकोंने अपनी टिप्पणीमें इस प्रकारका अभिवचनभी दिया था-'इस संपादित ग्रंथका पूरक ग्रंथके रूपमें हिंदी अनुवाद प्रकाशित करनेका आयोजन किया जा रहा है। परंतु कुछ अनिवार्य कारणों से इस हिंदी अनुवादका प्रकाशन होने में लगभग बीस बरसोंका काल बीत गया है। ____ यहाँ प्रस्तुत किया गया त्रिविक्रम व्याकरणका हिंदी अनुवाद मेरे मित्र डॉ. के. वा. भापटे, संस्कृत-अर्धमागधीके प्राध्यापक, विलिंग्डन महाविद्यालय, सांगली, महोदयजीने किया है। मैं उनका अत्यंत कृतज्ञ हूँ। इस अनुवादका आधार डॉ. वैद्यजीसंपादित मूल अंध है; प्रस्तुत अनुवाद उसका पूरक ग्रंथ है । यह दिखाई देगा कि इस ग्रंथ सूत्र यथामूल दिए हैं, और उदाहरणोंके साथ वृत्तिका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है। पादटिप्पणी तथा अन्य चिकित्सापूर्ण सामग्रीके लिये पाठकगण इस मालामें प्रकाशित डॉ. वैद्यजीका मूल संपादित ग्रंथ देखें । डॉ. वैद्यजीके ग्रंथमसे सब सामग्री इस पूरक ग्रंथमें देना आवश्यक नहीं था । किंतु प्रस्तुत हिंदी अनुवाद स्वतंत्र रूपसेभी उपयुक्त होनेके लिए इसमें हिंदी में संक्षिप्त प्रस्तावना तथा अंतमें अकारानुक्रमसे सूत्रोंकी सूची दी गयी है। इस प्रथमें और एक विशेषता यह है कि कुछ आवश्यक व्याकरणीय टिप्पणियाँ अंतमें दी गई हैं। त्रिविक्रमके प्राकृत व्याकरणका सुव्यवस्थित अनुवाद डॉ. के. वा. आपटेजीने प्रस्तुत किया है। अतः हम उनके आभारी हैं। मेरा यह विश्वास है कि यह हिंदी अनुवाद हिंदी जाननेवाले पाठकोंमें त्रिविक्रमके व्याकरणको औरही लोकप्रिय करेगा । इस ग्रंथके बारेमें विशेष रस लेनेके कारण हमारे अध्यक्षमहोदय श्रीमान् लालचंद हिराचंदजीको हम धन्यवाद देते हैं। इस ग्रंथमालाके प्रकाशन कार्यमें श्रीमान् वालचंद देवचंदजी हमारी सर्वतोपरी सक्रिय सहायता कर रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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