Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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नहीं है कि उन्होंने पूरी प्रमाणिकता के साथ गुणस्थान सम्बन्धी विभिन्न ग्रन्थों का आलोडन-विलोडन करके इस कृति । को तैयार किया है । सम्भवतः ऐतिहासिक एवं शोधपरक दृष्टि से गुणस्थान सिद्धान्त पर अब तक लिखे गये ग्रन्थों में यह कृति अपना सर्वोपरि स्थान सिद्ध करेगी। यद्यपि इस कति की रचना में मेरा मार्गदर्शन और सहयोग रहा है किन्तु साध्वीजी का श्रम भी कम मूल्यवान नहीं है । उपलब्ध सन्दर्भो को खोज निकालने में उन्होंने जैन साहित्य का गंभीरता से आलोडन-विलोडन किया । यही नहीं उनके इस आलोडन और विलोडन के परिणाम स्वरूप जो तथ्य सामने आये, उनके आधार पर मुझे भी अपनी पूर्वस्थापनाओं को किंचित् रूप में परिमार्जित करना पड़ा। - मेरी अपनी अवधारणा यही थी कि गुणस्थान सिद्धान्त की प्रतिस्थापना लगभग 5वीं शताब्दि में हुई । यद्यपि एक सुव्यवस्थित गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के रूप में मेरी यह स्थापना आज भी अडिग है । किन्तु मेरी दृष्टि में गुणस्थान सिद्धान्त के विकास का मूल आधार आचारांग-नियुक्ति में तत्वार्थ सूत्र के नौवें अध्याय में एवं षट्खण्डागम के कृति अनुयोगद्वार के परिशिष्ट में वर्णित कर्मनिर्जरा की उत्तरोत्तर वर्धमान दस अवस्थाएँ रही हैं । पूर्व में मेरी यही मान्यता थी, कि इन दस अवस्थाओं से ही चौदह गुणस्थानों का सिद्धान्त विकसित हुआ है । किन्तु प्रस्तुत शोधकार्य के सन्दर्भ में जब हमने श्वेताम्बर मान्य अर्धमागधी आगम साहित्य का गम्भीरता से आलोडन-विलोडन किया, तो हमे उसमें भगवतीसूत्र एवं प्रज्ञापनासूत्र में विविध सन्दर्भो में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरत, विरताविरत और विरत; निवृत्ति-बादर, अनिवृत्ति-बादर और सूक्ष्मसम्पराय, मोह-उपशमक एवं मोह क्षपक तथा सयोगी केवली और अयोगी केवली ऐसी तेरह अवस्थाओं के उल्लेख मिल गये। यद्यपि ये सब उल्लेख अलग-अलग सन्दर्भो में ही हुए हैं और किसी एक सुव्यवस्थित सिद्धान्त को प्रस्तुत नहीं करते हैं । इस आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि प्रथमतः गणस्थान सिद्धान्त के मल बीज श्वेताम्बर आगम साहित्य में ही रहे हुए हैं और उन्हीं के आधार पर आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र, षट्खण्डागम आदि में उत्तरोत्तर कर्म निर्जरा की दस अवस्थाओं का विकास हुआ है । जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त के सुव्यस्थित उल्लेख का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा में वह सर्वप्रथम जीवसमास, आवश्यकचूर्णि तथा तत्वार्थसूत्र की सिद्धसेनगणि की टीका में ही मिलता है ।
इनमें से जीवसमास लगभग पाँचवीं शती का है, शेष दोनों ही ग्रन्थ लगभग सातवीं शताब्दी के हैं । दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी सर्वप्रथम उल्लेख षटखण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की तत्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में मिलता है, ये दोनों ग्रन्थ पाँचवीं शती के उत्तरार्ध या छठवीं शती के प्रारम्भ के है । इससे स्पष्ट रूप से यह भी फलित होता है कि गुणस्थान सिद्धान्त व्यवस्थित रूप में पाँचवीं शती के बाद ही अस्तित्व में आया है अन्यथा श्वेताम्बर आगम-साहित्य और तत्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में एवं नियुक्ति और भाष्य-साहित्य में कहीं तो कुछ संकेत अवश्य मिलते । साथ ही यह भी स्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त का प्रारम्भिक व्यवस्थित स्वरूप श्वेताम्बर साहित्य की अपेक्षा दिगम्बर साहित्य में पहले पाया जाता है और श्वेताम्बर आचार्यों की अपेक्षा दिगम्बर आचार्यों का अवदान इस सिद्धान्त के विकास में अधिक महत्वपूर्ण है।
मेरी दृष्टि में यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र तथा उसके स्वोपज्ञभाष्य में, वल्लभी-वाचना (5वीं शती) में अर्धमागधी आगमों का जो पाठ निर्धारण हुआ था, उसमें तथा अर्धमागधी आगमों की नियुक्तियों
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