Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2 Author(s): Hemchandracharya, Hemchandrasuri Acharya Publisher: Atmaram Jain Model School View full book textPage 4
________________ SARGESe Sadivaladiemains 2005 R R-SASS चिरऋणी रहेंगे मुनि श्री जी के । मैं हृदय से चाहंगा यह सट्टीका-संस्करण अधिकाधिक प्रसार एवं प्रचार पाये ताकि प्राकृत के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त हो। श्रावणपूर्णिमा १९७५ राष्ट्रसन्त उपाध्याय, श्री अमरमुनि जी महाराज, कोरायतन राजगृह (बिहार) ४. श्रुतज्ञान शब्द और अर्थ दोनों पर निर्भर है। लिखने पढ़ने और बोलने में शब्द को प्रधानता होती है, अर्थ को नहीं । वत्मिक शब्द को ही भाषा कहते हैं । शुद्ध भाषा से अर्थ का निर्णय होता है, अर्थ-निर्णय से सम्यग-ज्ञान, सम्यग-ज्ञान से दर्शन और चारित्र को शुद्धि होती है। तीनों की शुद्धि से परमपद्र की प्राप्ति निश्चित है । भाषाशुद्धि व्याकरण से होती है। व्याकरण का अर्थ है --जिन नियमों एवं उपनियमों के विधि-विधान से भाषा की शुद्धि हो, निर्दोषता हो । प्राचार्य हेमचन्द्र ने सिद्धहैम व्याकरण की रचना की है। उमा पाकरण की पूर्ति पाठ अध्यायों में की है। प्रत्येक अध्याय में चार-पारमारे र क पाकरण के सभी नियम बतलाए गए हैं। पाणिनि व्याकरको बातिका ष्टि प्रादि से पूर्ण किया गया, जब कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने व्याकरण के किसी भी नियम को प्रधूरा नहीं रहने दिया। प्रारवें अध्याय में प्राकृतभाषा के नियम बतलाए हैं । संस्कृत व्याकरण की जो नियः हैं, उनमें से वहत से नियम प्राकृत-भाषा में भी लागू होते हैं और कुछ एक नियम भिन्न भी हैं। लिङ्गानुशासन में जो शब्द पुल्लिग में हैं या स्त्रीलिङ्ग में हैं उन्हें प्राकृतभाषा में भी उसी प्रकार मामझ लेना होता है। किन्तु जो शब्द नपुसकलिङ्गी हैं उनमें कुछ ऐसे शब्द भी हैं जो पुल्लिग में भी प्रयुक्त किए जा सकते हैं। प्राकृतभाषा इस पार्यावर्त में जो भाषा प्रार्य लोगों को बोलचाल में आने वाली थी, जिस भाषा में भगवान महावीर ने अपने पवित्र सिद्धान्तों का उपदेश दिया था, जिस भाषा में श्रेष्ठकाव्य निर्माण द्वारा प्रब रसेन ग्रादि महाकवियों ने अपनी अनुपम एवं दिव्य प्रतिभा का परिचय दिया है, जिस भाषा से भारतवर्ष की विद्यमान समस्त प्रार्य भाषाओं की उत्पत्ति हुई उन सब भाषामों का साधारण नाम है-प्राकृत । सब भाषाओं का मूलस्रोत प्राकृतभाषा है। जो कि समय और स्थान की भिन्नता के कारण प्राकृत केही विभिन्न रूप हैं। जैसे कि अर्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची, महाराष्टीप्राकृत, अपभ्रंशप्राकृत, पाली, पार्षप्राकृत, प्राथमिकप्राकत, हिन्दीप्राकृत प्रादि । इन में जो प्राथमिकप्राकृत है वह येनकेन प्रकारेण सब भाषायों में व्यापक है । प्राकृतभाषा संस्कृत सापेक्ष तो है ही, देश्य भी है। प्राचार्य हेम चन्द्र ने प्राकृतभाषा को तीन भागों में विभक्त किया है। जैसे ---तत्सम, तद्भव और देश्य-देशी । जो शब्द संस्कृत और प्राकृत दोनों में बिल्कुल एक समान होते हैं वे तत्सम कहलाते हैं। जैसे कि खल, हल, बल, फल, धवल, प्रागम, अंजलि-गण प्रादि शब्द संस्कृत सम माने जाते हैं । जो भाब्द संस्कृत से वर्ण-परिवर्तन,वर्णागम, वर्णलोप आदि द्वारा उत्पन्न हुए हैं वे तद्भव कहलाते हैं । जैसे कि धर्म-धम्म, ध्यान झाणा, भार्या-भारिमा, नाथ-नाह, हृदय-हिमप्र, मेध-मेह. भवति-हवइ,भविष्यतिहोहि इत्यादि । जिन्द शब्दों की समानला संस्कृत के साथ बिल्कुल भी नहीं है, उन प्राकृत शब्दों को देश्य-वेभी कहते हैं। जैसे कि चुक्कइ (पश्यति), देवखाइ (पश्यति), डाल (शाखा), झडप्प (शीन),Page Navigation
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