Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Hemchandrasuri Acharya
Publisher: Atmaram Jain Model School

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ [ख] प्रतः वह शतद्रु की तरह शत-शत धाराम्रों में प्रवहमान होती रही है। इसलिये उसमें शब्द रूपों की इतनी विश्व खलता है कि पाठक का कभी-कभी सिर चकरा जाता है। यह स्थिति उसकी साहित्यिक घरातल पर आने के पूर्व की स्थिति है । परन्तु ज्योंही उसने साहित्यिक रूप लेना शुरू किया, तो वह व्याकरण की सीमा में प्रतिबद्ध होने लगी। कोई भी साहित्यिक भाषा अपनी शुद्धता के लिये व्याकरण से अनपेक्षित नहीं रह सकती । यतः प्राकृत के व्याकरणों की भी अनेक रचनाएं यथासमय होने लगीं । प्राकृत भाषा के अनेक व्याकरण श्राज उपलब्ध हैं, जिनमें चण्ड, वररुचि, त्रिविक्रम देव, लक्ष्मीधर शुभचन्द्र, मार्कण्डेय एवं प्राचार्यहेमचन्द्र आदि के व्याकरण काफी ख्याति प्राप्त हैं । पक्षपात का प्रश्न नहीं है। यह एक यथार्थ सत्य है कि सभी प्राकृत व्याकरणों में हेमचन्द्राचार्य का प्राकृत व्याकरण गुणवत्ता की दृष्टि से ग्रपती एक विशिष्ट महता रखता है । तुलनात्मक समालोचना का यह प्रसंग नहीं है। फिर भी संक्षेप में इतना कथ्य अवश्य है कि प्रस्तुत व्याकरण में श्रार्ष प्राकृत से लेकर शौरसेनी, मागधी, पैशाची एवं प्रपभ्रंश तक की विभिन्न प्राकृत धारामों के लक्षणों का यथोचित सन्निवेश है। यह एक ही व्याकरण प्राकृत की अनेक शाखाओं के व्यापक अध्ययन के -लिये पर्याप्त है। यही कारण है कि प्रस्तुत व्याकरण प्राकृत के अनेक पाठ्यक्रमों में स्थान प्राप्त कर चुका है और भविष्य में प्राप्त करता जा रहा है। प्राचार्य हेमचन्द्र विश्वतोमुखी पाण्डित्य की दृष्टि से वस्तुतः अपने “कलिकाल सर्वज्ञ" विरुद के अनुरूप हैं । काव्य, चरित्र, कोष, छन्द, अलंकार एवं व्याकरण यदि अनेक साहित्यिक विधाओं पत्य का दर्शन होता है। विशेषतः व्याकरण-शास्त्र के तो वे दूसरे पाणिनि हैं। 'सिंहासन' नामक व्याकरणग्रन्थ उनका सर्वागीण समर्थ व्याकरण है। पूर्व के सात श्रध्याय संस्कृत से सम्बन्धित हैं, और अंतिम आठवां अध्याय प्राकृत से यह प्राठवां अध्याय प्राकृतव्याकरण के नाम से विद्वज्जगत में एक स्वतन्त्र ग्रन्थ का रूप ले चुका है। प्रस्तुत प्राकृत व्याकरण के लिये त्रिकाल से एक विशद सुबोध एवं प्रामाणिक व्याख्या की अपेक्षा थी । इस दिशा में कुछ प्रयत्न हो भी चुके हैं। परन्तु महामहिम श्रद्धेय श्रुतदेवतावसार प्राचार्यदेव पूज्य श्री आत्मा राम जी महाराज के चित्र शिष्य पण्डित श्री ज्ञानमुनि जी ने जो प्रयत्न किया है, वह वस्तुतः एक विलक्षण प्रयत्न है। मुनि श्री ने संस्कृत में 'बालमनोरमा' टीका की रचना की है। जिसमें विस्तार के साथ मूल सूत्रों एवं उनकी स्वयं प्राचार्यकृत वृत्ति का मर्मोद्घाटन किया है। साथ ही उदाहरण स्वरूप दिये गये शब्द रूपों एवं धातु रूपों की rafter भी प्रस्तुत को गई है। जो व्याकरण के अध्येताओं के लिये प्रती उपयोगी प्रमाणित होगी। संस्कृत टीका की भाषा सरल है, स्पष्ट है, सुबोध है। साथ ही हिन्दी टीका लिखकर तो "हम सुगन्धः" की सद्बुक्ति को चरितार्थ कर दिखाया है । अन्त में परिशिष्ट के रूप में विस्तृत शब्दसूची है, संस्कृत पर्यायान्तर के साथ यह शब्दसूची विद्वान तथा छात्र दोनों के लिये प्रतीव लाभप्रद है । सब मिलाकर प्रस्तुत संस्करण अपना अलग ही एक आकर्षक रूप उपस्थित करना है। श्री ज्ञानमुनि जी शतशः धन्यवादाहं हैं। कितना श्रम, समय, शक्ति एवं सरस्वती का उपयोग किया है उन्होंने प्रस्तुत सम्पादन में प्राकृत भाषा के अध्यापक और अध्येता एतदर्थं

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 ... 461