Book Title: Prakrit Vidya 2002 10 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti Trust View full book textPage 4
________________ परामर्शदाता - श्री पारसदास जैन सम्पादक-मण्डल डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री . प्रो. (डॉ.) प्रेमसुमन जैन डॉ. उदयचन्द्र जैन - प्रो. (डॉ.) शशिप्रभा जैन प्रबन्ध सम्पादक डॉ. वीरसागर जैन : श्री कुन्दकुन्द भारती (प्राकृत भवन) 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 फोन (011) 6564510, 6513138 Kundkund Bharti (Prakrit Bhawan) 18-B, Spl. Institutional Area ___ New Delhi-110067 Phone (91-11)6564510,6513138 परमहंस-कायोत्सर्ग .. . तिर्थक्-प्रसारितभुजौ व्यावृत्तपरिवर्तितौ । हंसपंक्षकरौ दण्डपक्षावुक्तौ । दिगम्बरैः ।। अधोमुखतलाविद्धौ किंचित्तिर्यक्-प्रसारितौ। हंसपक्षकरौ स्यातां तौ द्वौ गरुडपक्षको।।। -(आचार्य पार्श्वदेव, संगीत समयसार', 7/95-96) अर्थ :- दिगम्बर जैन-योगी को योग के समय हंस-पक्षी के पंखों के समान | दोनों बाहों को फैलाकर ध्यान करना चाहिये। वे दोनों हाथ नीचे की ओर लटके हैं; तथा किंचित् थोड़े-से तिरछे और प्रसारित किए हुए हैं, एवं शरीर से अस्पृष्ट हैं। मोहन-जो-दड़ो ___“मोहनजोदरो से उपलब्ध ध्यानस्थ-योगियों की मूर्तियों की प्राप्ति से जैनधर्म की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध होती है।" - (वाचस्पति गैरोला, भारती दर्शन, पृ. 86, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1962) “जैनधर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु-सभ्यता तक चला जाता है।" -(राधाकुमुद मुखर्जी, हिन्दू सभ्यता, पृ. 23) ** 002 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 116