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पचम्न
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उसकी बताई हुई विद्याओंको विधिपूर्वक जान प्रद्युम्नकुमार अतिशय संतुष्ट हुआ और कनकमाला से बोला ।६०। हे पुण्यरूपे ! अब मेरे मनोहर वचन सुन - जिस समय मुझे शत्रुने हर करके पर्वतकी कन्दरामें जाके रक्खा था, उस समय न तो मेरे पिता शरण हुए थे और न माता । उस समय आप दोनों ही शरण हुए थे, दूसरा कोई नहीं । इस लिये आप दोनों ही मेरे माता पिता हैं । सो पुत्र के योग्य जो कोई कार्य हो, सो मुझसे कहो, मैं करनेके लिये तैयार हूँ । ६१-६२। उसके इस प्रकार वज्रपातके समान वचन सुनकर वह क्रोध से कुछ कहना ही चाहती थी कि, प्रद्युम्नकुमार नमस्कार करके अपने महलको चला गया। तब वह अपनेको ठगी हुई समझकर चिंता करने लगी। मेरी आशा नष्ट होगई । हाय कब मैं क्या करूँ ? मुझे उस पापीने ठग ली। मेरी विद्यायें भी ले गया और मेरी इच्छा भी पूर्ण न कर गया ।६३६६। अब तो मुझे ठगनेवाले इस दुष्ट पापीका जिस तरह निग्रह हो सके, वही उपाय करना चाहिये | ६७ | इसप्रकार बहुत समय तक मनमें विचार करके उसने अपने हाथोंके नखोंसे अपने शरीरको तथा दोनों कुचोंको नोंच डाला | ६८ | फिर वह बालोंको विखराकर धूल में लपेटकर तथा आँखोंका काजल मुँ हमें लगाकर रोती हुई राजाके पास गई और दु:खसे गद्गद् तथा विनयसे नम्र होकर बोली । ६६-७० | हे महाभाग नाथ ! जिसे आपने विजन वनमें मुझे पालन करने के लिये दिया था, देखो आज उसी पापीने यह मेरी क्या दशा की है । ७१ | मैंने जिसे बाल्यावस्था में पुत्रके समान पालकर बढ़ाया था और मेरे ही कहने से आपने जिसे युवराजपद दिया था ।७२। आज उसी पापात्मा ने मेरा यौवन भूषित रूप देखकर कामदेव के वशीभूत हो कुचेष्टा की है । ७३ ॥ वह दुष्टबुद्धि अवश्य ही नीच कुलका उत्पन्न हुआ है। यदि ऐसा न होता, तो माता के विषय में ऐसी पापबुद्धि क्यों करता ? |७४ | उस दुर्जन और दुष्टबुद्धिने मेरे पास आकर अपने तीखे नखोंसे मेरा यह शरीर नोंच डाला है । ७५। आपके पुण्यके प्रभावसे कुलदेवीके प्रसादसे और अपने भाग्यके वशसे
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