Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Somkirtisuriji, Babu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 268
________________ प्रनम्न २६१ 1 कारणका विचार करके नानाप्रकार के भोजन मांगने लगे, क्रोधित होकर भोजन लेकर फेंकने लगे, बारम्बार रोने लगे और जो कुछ माता देती थी, उसको न लेकर दूसरी २ भोजन की चीजें मांगने लगे । उन्हें चीजें न मिलनेसे रोते देखकर माताने कहा, बेटा ! तू रो मत। मैं तेरा रोना सहन नहीं कर सकती हूँ । ६४६६। माताके ये वचन सुनकर कामदेव हँसकर के बोले, माता ! मेरा रोना वह कनकमाला विद्याधरी तो सह लेती थी । ऐसा कहकर प्रद्युम्न कुमार तत्काल ही यौवनभूषित युवा होकर बड़े भारी हर्षसे माताके चरण कमलोंमें पड़ गये। यह देखकर उस विद्याविभूषित पुत्रका आलिंगन करके और मुख चूम करके माता रुक्मिणीने अतिशय सुख प्राप्त किया । ९७-६६ । पुत्रके अङ्ग स्पर्शसे किसको सुख नहीं होता है ? उन दोनों माँ बेटोंने उस समय इस बातको देखा, सुना और अनुभव कर लिया | १००| इसके पश्चात् रुक्मिणी और प्रद्युम्नबैठे हुए परस्पर वार्तालाप करने लगे । और इतनेही में बलदेव के भेजे हुए सेवक हथियार उठाये हुए आ पहुँचे |१| उन्हें गली मेंसे आते हुए देखकर प्रद्युम्नने अपनी माता के चरण कमलोंकी भक्तिपूर्वक वन्दना करके पूछा, हे माता ! यह सेवक लोग किसके हैं, जो शस्त्र उठाये हुए आ रहे हैं ? इनकी चेष्टा भव्य नहीं दिखती है । इसलिये मुझे जल्दी बतलाओ कि, ये कौन हैं ? | २-३ | रुक्मिणी बोली, बेटा! तेरे पिता के बड़े भाई बलदेवजीने मुझ पर क्रांधित होकर इन लोगों को भेजा है । सत्यभामा की दासियोंकी जो तूने यहां पर विडम्बना की थी - नाक कान वगैरह काट लिये थे, उसे देखकर वे क्रोधित हुए होंगे क्योकि उस काममें अर्थात् मेरी और सत्यभामाकी जो प्रतिज्ञा हुई थी, उसमें वे जानिन (प्रतिभू) थे यह सेवकों का समूह उन्होंने मुझपर भेजा है | ४-६ | यह सुनकर प्रद्युम्नने कहा, माता तू यहां बैठी रह और मेरा कर्त्तव्य देख । रुक्मिणी बोली, बेटा, यह वलदेवजीके सिपाही तुझसे नहीं जीते जावेंगे । क्योंकि इन्हें दूसरे बड़े २ रणपंडित भी नहीं जीत सकते हैं। यह सुनकर प्रद्युम्न अपनी प्रेमाभिला ६६ Jain Educa International For Private & Personal Use Only चरित्र www.jainelibrary.org.

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