Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Somkirtisuriji, Babu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 325
________________ प्रथम्न ३१८ पांचप्रकार के उदुम्बर फलोंका त्याग । इनके सिवाय गृहस्थोंको बिना जाने हुए बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिये, बुरे फल, बुरे फूल, बाजारका आटा तथा कन्दमूलादि त्याग करना चाहिये । मक्खन सर्वथा छोड़ने योग्य है । ऐसा अन्न जिसपर फूल फफूंदा या गया हो, तथा जो द्विदल हो, अर्थात् गोरस (दूध दही तथा बालसे) मिला हुआ दो दालोंवाला हो, नहीं खाना चाहिये, क्योंकि वह अनन्तकाय होता है अर्थात् उसमें अनन्त जीवों की राशि होती है । ४१-४५॥ कांजी, तक्र (बाल-मठा) और पका हुआ शाक ये दो दिनके रक्खे हुए नहीं खाना चाहिये, क्योंकि इनसे श्रहिंसात्रतमें अतीचार लगता है । विवेकी श्रावकोंको चमड़ेके बर्तन में (कुप्पे वगैरह में ) रक्खे हुए घी तेल, और जलको ग्रहण नहीं करना चाहिये । क्योंकि इनके ग्रहण करनेसे मांसका दोष लगता है ।४६-४७। तत्कालका गाला हुआ दोष रहित प्रासुक जल पीना चाहिये । बिना जाना हुआ फल भी नहीं खाना चाहिये । मिथ्यात्वको और सातों व्यसनोंको दूरहीसे त्याग कर देना चाहिये । रातका भोजन और दिनका मैथुन त्याज्य है । कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र और कुधर्म जो संसार के बढ़ानेवाले होते हैं, उनका कभी मनमें भी चिन्तवन नहीं करना चाहिये । बुद्धिमानों को देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप, और दान ये कर्म प्रतिदिन करना चाहिये । तीन लोक में सबसे दुर्लभ पदार्थ जिनदेवका कहा हुआ धर्म है । |४८-५१ | जिनेन्द्र भगवानका यह धर्मोपदेश सुनकर वहां जितने मनुष्य तथा देव थे, अतिशय सन्तुष्ट होकर भगवानको नमस्कार करने लगे । वादित्रों का घोष, धौर गीतोंकी मधुर ध्वनि होने लगी । arita सुनकर कितने ही भव्योंने दीक्षा ले ली, कइयोंने जिनेन्द्रकी पूजा की तथा कइयोंने मौन यादिका नियम धारण किया, किसीने सम्यक्त्व और किसीने अणुव्रत ग्रहण किये। इस तरह अपने २ भावों के अनुसार भगवान के वाक्योंकी प्रेरणा से अनेक भव्योंने अनेक प्रकार के नियम लिये । ५२-५५ । इस उपदेश से करोड़ों मनुष्य, देव, और असुर संबोधित होगये और नमस्कार करके अपने २ For Private & Personal Use Only Jain Education International चरित्र www.library.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358