Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Somkirtisuriji, Babu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 339
________________ इससमय क्या तुझे ऐसा करना योग्य है । अपनी माताको दुःखिनी छोड़कर जाना क्या तुझे उचित _ प्रद्युम्न । है ? यदि धर्मके लिये उद्यत हुआ है, तो हे दयाधर्मके पालनेवाले ! अपनी माताको क्यों दुखी करता || चरित्र है ? ।४१-४४॥ माताको इसप्रकार शोकाकुलित देखकर शास्त्रोंके नाना दृष्टान्तोंको जाननेवाला प्रद्युम्नकुमार फिर बोला, हे माता ! तू संसारके स्वरूपको नित्य (स्थायी) समझ रही है। और यह नहीं जानती है कि जीवधारी अकेला उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है। अकेला कर्म बांधता है और अकेला ही उसका फल भोगता है। इसलिये जो विवेक आदि गुणोंके धारण करनेवाले हैं, उन्हें किसीके साथ शोक नहीं करना चाहिये। प्राणियों को प्रत्येक भवमें दुःखका देनेवाला मोह ही है। जब तक मोह है, तभी तक अधिकाधिक दुःख है। जन्मके पीछे मरण लगा हुआ है, यौवनके पीछे बुढ़ापा लगा हुआ है और स्नेहके पीछे दुःख लगा हुआ है । इन्द्रियोंके विषयभोग हैं, सो विषके समान दुखदाई हैं। विवेकी जीव इस मोहको छोड़कर सुकृत करनेका यत्न करते हैं ! उन्हें जो कोई रोकता है, वह मूर्ख है तथा शत्रु है। इसमें सन्देह नहीं है ।४५.५०। ऐसा समझकर सोच छोड़ दो और मुझपर प्रसन्न होकर दीक्षा लेनेकी श्राज्ञा दो। मैं तुम्हारी आज्ञानुसार चलनेवाला हूँ ॥५१॥ पुत्रके वचन सुनकर रुक्मिणीका मोह दूर हो गया। विषयोंका परिणाम समझकर बोली हे पुत्र ! मैं बहू और बेटेके मोहसे मोहित हो रही थी। तूने मुझे प्रतिबोधित करदी। हे गुणाधार ! इस विषयमें तू मेरे गुरुके समान है । प्रद्युम्न ! जिस तरह सूखे पत्तोंका समूह हवाके लगनेसे उड़ जाता है उसी प्रकारसे कुटुम्बी जनोंका संयोग है । अर्थात् कालरूपी हवाके चलने से यह भी जहां तहां उड़ जाते हैं, जैसे बादलोंके समूह आकाशमें दिखलाई देते हैं और थोड़ी ही देरमें हवाके प्रभावसे नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकारसे सम्पत्ति भी बातकी बातमें नहीं रहती है ।५२. ५५। एक तप तथा संयम ही संसारमें ध्र व है। विषयोंकी प्रीति अवश्य ही विनाश होनेवाली है। Jain Education interational For Private & Personal Use Only wwwleelibrary.org

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